Thursday, January 11, 2024

नमी न थी 

भारत के एक छोर से गंगा निकलती हैं और मैदानों की तरफ बहती जाती हैं। सब तरफ हरा -भरा दिखाई देता है ,कभी लगता है गंगा बुला रही है , मांझी बीच नदी में नाव खेता रहता है। उसे कभी भय नहीं लगता। गंगा सभी का भय दूर करती है। बचपन तो यमुना किनारे दौड़ते -भागते निकल गया। कभी गुड्डे -गुड़िया का खेल खेला ,कभी छत की अटारी पर किल किल कांटे खेलते रहे। जब चाहा ,गुड़िया का ब्याह होने लगता था। गर्मी की तेज हवाएं बैरन बन जातीं थी। घर से छत ,छत से चौबारा ,चौबारे से खेत की मेढ़ फिर सब्जी तोडना ,खेतों में दौड़ना ,गोबर से कंडे बनाना ,पुढे से पानी भरना ,गाय -बैल के लिए चारा काटना हमारे रोज के काम थे। 

सारे दोस्त मिलकर खेत पर जाते तब ,हुलाकडंडा खेल हमारा प्रिय खेल था। पेड़ पर चढ़ना फिर कूदना और भागना। पूरे  दिन ऊर्जा भरी होती थी। कभी थाली में रखकर खाना याद नहीं ,जब जो ,मिल गया खा लिया। बचपन सभी के जीवन का बेहतरीन समय होता है। उम्र जब ढलने लगती है तब ,मन फिर से वापस लौटता है। उन्हीं गलियों में भटकना चाहता है। जब युवा होते हैं तब ,कुछ होश नहीं रहता ,कब खाना खाया ,कब गर्मी आई ,कब बरसात आकर निकल गई। सहेलियों का एक दौर आता है ,कभी पढाई ,कभी किताबें ,कभी ठिठोली ,कभी रतजगा करना सब हाथ से रेत सा सरक जाता है। जब ,विवाह की बारी आती है तब ,सर्दी ,गर्मी ,बरसात समझ आती है। तोते के खाने के बाद ,मिटटी में गिरी गुठली फिर से नीम का पेड़ बन जाती है यह तभी समझ आता है जब ,किसी का इन्तजार करना पड़ता है। 

दस बरस तो जीवन का रस लेने में निकल ही जाते हैं। घर बसाना ,तबादला ,बच्चों के स्कूल ,पढाई इन सब के साथ अपना वजूद गुम जाता है। नहीं देख पाई कि बादल घुमड़े या नहीं ,बिजली कड़की या नहीं बस झट से कपडे उठा लिए। बच्चे बड़े हुए तब समय माया मोह से कुछ उखड़ा सा होने लगता है। अभी दिशा  ,काल ,मौसम सब अलग हैं। जिम्मेदारी पूरी होने की कामना लेकर हर देवी -देवता को खुश किया जाता है। प्रकृति का भान होने लगता है जब ,घर की मुंडेर पर चिड़िया घोंसला बनाती है तब ,अच्छा लगता है। जब ,गौरिया अपने चूजे उड़ा ले जाती है तब ,जीवन का सार समझ आता है। 

अभी मन की व्यथाएँ बदल गई हैं। जीवन की आप -धापी नहीं रही। बादलों के साथ सैर करना शुरू हो गया है। रोटी बनाना बंद नहीं हुआ ,न साफ़ -सफाई करना बंद हुआ। कमर के गलियारे में एक नरम सा कपडा लगा ही रहता है। अजब सा जिंदगी का मौसम हो रहा है। कभी खिड़की खुली है तो दरवाजा बंद है। दर वाजा  तो खिड़की खुली है। कोई ठहरी सी पगडण्डी दिखाई नहीं देती। शब्दों के भाव कलम से पेपर तक आते -आते तिरोहित हो जाते हैं। भीतर का ज्वालामुखी हजारों नदियां बन कर बिखर रहा है। जीवन की सड़क पर गड्डे न हों तो ,किनारा समझ नहीं आता। मौसम करवट बदल रहा है लेकिन आँखों की करें सूख रहीं हैं। कोई नमी नहीं। 








































 

No comments: