Friday, January 12, 2024

होटल की रात 

खाना खाकर हम अपने  रूम में चले गए ,अभी नींद का झोंका शुरू ही हुआ था कि बाहर से कुछ आवाजें आने लगीं ,कोई बाँदा ज्यादा शराब पीकर अपने दोस्तों को गाली दे रहा था। बार -बार दरवाजा बंद करता और खोल देता। बोलने लगता। तभी होटल का कर्मचारी उसे समझा रहा था कि आप रात को आवाज न करें ,बाकी लोग परेशान हो रहे हैं। आप सो जाएँ नहीं तो होटल छोड़ दें। अरे !!क्या बात करता है ?शराबी उसी पर भड़क गया। उसके दोस्त भी समझा रहे थे पर बाँदा माने तब न। माहौल कुछ शांत हुआ तभी जो दोस्त उसे सुलाने अपने रूम से बाहर आया था उसकी चाबी अंदर ही रह गई।फिर से हलचल शुरू हो गई। दूसरे दोस्त बोल रहे थे यार चाबी कौन अंदर छोड़ता है ? शराबी गहरी नींद ले रहा था। 

पति महाशय गहरी नींद ले रहे थे ,जब भी नींद आने को होती कुछ होने लगता ,हमारे बगल वाले रूम में पति -पत्नी थे ,पति शुरू हुआ एक तो घूमने लाओ ऊपर से नाटक दिखाती है। शायद उसने भी पि राखी थी ,तभी कुछ टूटने की आवाज आई ,गिलास होगा। तेरे को क्या नहीं किया ,सब कुछ दिया ,पत्नी उसे नाहक समझने की कोशिश कर रही थी। तभी किसी के गिरने की आवाज आई ,मुझे लगा किसी को बुलाऊँ लेकिन अभी तो इतना नाटक होकर चूका था। धार्मिक स्थलों पर आकर लोग ऐसा क्यों करते हैं ? पत्नी को जलील करने के लिए नए रास्ते और जगहें खोजते हैं। वैसे पत्नी इनकी इज्जत होती है लेकिन पीने के बाद उसी का तमाशा बनाने से नहीं चूकते। होटल की वो रात मेरी नींद उ डा  ले गई। क्या नारी कभी मान -सम्मान के साथ जी पायेगी ?








 








 देवघर 
सिया और रवि ने कल देवघर जाने का निर्णय किया। दो जोड़ी कपडे रख लेते हैं ,रात में रुकना होगा ,खाना ,नाश्ता ,कुछ फल ,मेवे आदि रखकर सिया ने बैग तैयार कर लिया। ड्राइवर से बोलै हाइवे से चलना ,अच्छे ढाबे पर रोक लेना ,वहां खाना खा लेंगे। जी सर ,कहकर सनकी टिल्लू ड्राइविंग सीट पर बैठ गया। पचास किलोमीटर चलने पर सिया कुछ फल निकाल लेती है। सामने टोलनाका आ गया ,दौनों सड़क किनारे के मनोहारी सीन देखते चले जा रहे हैं। सिया बोलती है अभी यहाँ के गांव उतने ही जवां हैं जितने साठ के दशक में होते होंगे। पुराने विशाल तने वाले बरगद के पेड़ ,मंदिर ,गांव में गाय ,भैस ,बकरी ,कच्चे घर ,छप्पर बैलगाड़ी सब कुछ वही। हरे -भरे खेत बड़े सुन्दर लग रहे थे। 
गांव के बुजुर्ग लोग और युवा भी सब सड़क किनारे ,मंदिर के टूटे चबूतरे पर ही ताश खेल रहे हैं। कोई नींद ले रहा है। खेतों में अधिकांश महिलाएं काम करती दिखाई दी। सभी युवा लोग फ़ोन पर व्यस्त दिखाई दिए। हम तो अपनी दु नियाँ में मस्त थे ,तभी टुल्लू को नाका दिखाई दिया उसने गाड़ी नेशनल हाइवे से स्टेट हाइवे पर डाल दी। उसे दोस्तों ने जो रास्ता सुझाया था वही पकड़ लिया। तीन बजने को था ,कोई ढाबा दिखाई नहीं दे रहा था। गांव ही गांव हमारा स्वागत कर रहे थे। जब  पूछा कि भाई ! बाजार नहीं दिख रहा तो बोला साब हम दूसरे रस्ते पर हैं। टुल्लू की मूर्खता के कारण खाने का समय निकल गया। बहुत मुश्किल से एक चाय की दूकान पर रोका और साथ लाये पराठे ,नमकीन खाया गया। 
रवि भी परेशान थे लेकिन कुछ बोल नहीं पा रहे थे क्योकि अभी उसी के साथ वापस भी जाना था। हम दो घंटे देर से पहुँच पा रहे थे। अँधेरा होने के बाद हम पहुँच सके। सामान होटल में रखा और रिक्शे पर सवार होकर बाबा बैजनाथ के दर्शन करने चले गए। देव दर्शन के लिए प्रसाद लिया और सरस्वती मंदिर के सामने लम्बी लाइन में खड़े हो गए। तभी एक थाली में दिया जलाकर दस के नोट रखकर फर्जी पंडित वहां घूमने लगा ,तभी पंडित आपस में लड़ने लगे ,उसे भगा दिया। हर जगह इस तरह की हरकत देखने को मिल जाती है। 
तभी एक बन्दे ने बड़ा गेट खोल दिया ,भोले बाबा की जय के नारे लगने लगे। फर्श पर फिसलन थी ,हाथों में प्रसाद था ,ऊपर चढ़ने को सीढ़ी थीं ,लोग धक्का देने लगे ,बहुत मुश्किल से ऊपर पहुँच सके। छोटा सा सकरा रास्ता ,एक कमरा जहाँ बाबा बिराजे थे ,वहां भी पैसों का खेल  था। लेकिन बाबा के दर्शन कर हम लोग बाहर हो गए। बगल में ही देवी पारवती जी का स्थान था वहां भी दर्शन किये और हम रिक्शे से ही वापस आ गए। 
सुबह के लिए बाबा बासुकी नाथ के दर्शन करने थे खाना रूम पर ही मांगकर खा लिया। सुबह ग्रीन टी से नींद खुली ,सामान पैक कर रख दिया। बषुकि नाथ के रास्ता पूछने में भी टुल्लू ने नितांत मूर्खता का परिचय दिया। जब देर से पहुंचे तब ,वहां बाबा भोले नाथ की सवारी नादिया वहां घूम रहे थे। बहुत मस्त दर्शन किये। बाहर आकर सिया ने कुछ अचार खरीदे ,नाश्ते के लिए कचौड़ी ली ,फिर चल दिए। पता था ,ऐसा रास्ता खोजेगा कि  बाजार नहीं मिलेगा और न ढाबा मिलेगा। 
अभी टुल्लू को समझा दिया किसी  हालत में नेशनल हाइवे नहीं छोड़ना है। जी सर के बाद वही हुआ ,एक नया रास्ता पकड़ लिया। तीन बज रहा था ,खाने के लिए कुछ नहीं था ,सर्दी थीं तो अँधेरा जल्दी होना शुरू हो गया। अब ,टुल्लू ने ऐसा हाइवे चुना जो अभी बन रहा था। एक तरफ रास्ता था ,दूसरी तरफ बन रहा था ,लाइट नहीं थी। अगर  हो जाती तो हम कुछ नहीं कर सकते थे। वहां नेट भी नहीं चल रहा था। किसी से पूछ भी नहीं सकते थे ,कोई गाड़ी न आगे न पीछे। उसके बाद भी टुल्लू अपने निर्णय पर अडिग था। तभी रास्ते में मिलिट्री ट्रक दिखाई दिए ,वहां वर्दी पहने कुछ युवा थे ,गाड़ी रोककर रास्ता पूछा ,सिया की जान ही निकल गई। एक किलोमीटर आगे हाइवे था। फिर तो सिया ने खूब फटकारा ,गाड़ी क्यों रोकी ? यहाँ कौन सुनता हमारी आवाज ? फिर यकायक मुझे याद आया ड्राइवर का नाम। काटो तो  खून नहीं। मन्त्र जाप करते हुए हम रात ग्यारह बजे घर पहुँच सके। 
































































































गुनिया बहु 

ठाकुर हरी राम के खानदान में पचास लोगों का जमाबड़ा होगा ,सबका खाना एक ही चूल्हे पर बनता है। उनका घर देखो तो लगेगा पूरा गांव एक ही बाड़े में रहता है। घर में दो बड़े आँगन हैं। चारो तरफ कमरे बने हैं ,आँगन के बीच में हेण्डपम्प लगे हैं। आँगन में सुरक्षा के लिए लोहे का जाल लगा है ,ऊपर मेहमान खाने बने हैं। सामने बड़ा सा बगीचा बना है ,दिन भर दर्जन भर बच्चे धमाचौकड़ी करते रहते हैं। बाहर गेट पर ठाकुर हरिराम लिखा है। चार लड़के दो बेटियों का भरा पूरा परिवार है। 

भीतर ही गाड़ी ,स्कूटर ,ट्रेक्टर ,साईकिल सब के लिए गेराज बना है ,जीप के लिए अलग स्थान है। भगत माली वहीँ एक कमरे में पत्नी के साथ रहता है। चौकीदारी का काम भी वही करता है। भगत की पत्नी सुधा घर का काम देख लेती है। ठाकुर के घर बच्चों को पढ़ने एक मास्टर भी आता है ,दो बाइयाँ भी आती हैं। पढाई केवल लड़कों की होती है ,लड़कियां दूसरे कमरे से सुन कर ही पढ़ सकतीं हैं। यही अजब नियम है ठाकुर का। दुनियां बदल गई पर उनकी सनक नहीं बदली। लड़कियां नहीं पढेंगी बस। 

शायद इसीलिए ठाकुर के घर बेटी होना ,अच्छा नहीं मानते। किसी को नहीं पता क्या वजह है ? ठाकुर ने कह दिया तो ,हुक्म का आदेश माना जायेगा। चालीस बीघा खेत से दो सौ बीघा करने वाले ठाकुर ही हैं। चारों बेटों ने काम बाँट रखे हैं ,कोई बाहर का काम देखता है तो कोई हिसाब -किताब ,कोई मंडी का काम देखता है तो छोटा खेत का। ठाकुर बाहर बरांडे में बड़े से पलंग पर पड़े ,हुक्का गुड़गुड़ाते रहते हैं। पास के मेज पर जग ,पानी का गिलास रखा रहता है। दो मूड़े रखे रहते हैं दोस्तों के लिए। शाम सात बजे तक दोस्तों से गांव भर की और राजनीति की बातें चलती रहतीं हैं। 

आठ बजे खाना खाकर ,बेटों के साथ रोज का हिसाब होता है। घर का हिसाब बड़ी बहु देखती है क्योकि वो बीकॉम पास है। दूसरी रसोई का काम देखती है क्योंकि होमसाइंस किया है। तीसरी ने एमए किया है वो  पढाई देखती है। बड़े आँगन में चूल्हा हमेशा ही जलता रहता है ,कभी दूध उबल रहा होता है ,कभी सब्जी पाक रही होती है। पहले बच्चे खाना खाते हैं फिर पुरुष तब ,महिलाएं खातीं हैं। ठाकुर का मानना है जब ,बहु घर आये तो पढ़ी लिखी होनी चाहिए। घर की बेटियों के लिए कुछ नहीं। 

जब ,सरस्वती ठकुरानी जीवित थीं तब ,बहु से पहली बार मिलते समय यही पूछतीं थीं ,बेटा !! खाना बनाना आवे ,सिलाई ,बुनाई ,नाचगाना आवे ?हाँ कहने के साथ ही रिश्ता तय हो जाता था। सरस्वती की दो बेटियां हैं ,एक ने दसवीं तक पढ़ा ,दूसरी पास के गांव में ब्याही है। सरस्वती बीमार हो गई। कुछ दिन बाद स्वर्ग सिधार गईं। एक बार होली पर सरस्वती की बहन रूपा भांजों से मिलने आ गई ,ठाकुर खुश तो हुआ लेकिन उनका कमरा अपने कमरे के पास बना दिया। बड़ी बहु उनका ध्यान रखती थी। एक रात रूपा  तबियत बिगड़ गई ,बहु उनके साथ सोने लगी। जब तबियत थोड़ी ठीक हुई तो ,ठाकुर ने बेटे से कहा कल मौसी को छोड़ आना। बहु ने रात में मौसी से पूछ लिया -पिताजी लड़कियों से क्यों चिढ़ते हैं। पढ़ने नहीं देते। रूपा ने अपनी सौगंध दिलाई ,कभी किसी को पता न चले ,ठाकुर की बेटी रुक्मणि किसी से करती थी। पढ़ने के बहाने खेतों पर डोलती थी ,एक दिन किसी ने ठाकुर को बता दिया -तुम्हारी छोरी तो ,जंगल में घुस गई। उसी समय फरसा लेकर गए ,आज तक दौनों की लाश न मिली। सरस्वती तो इसी चिंता में चली गई। शालू तूने अगर काई ते कही तो ,जीजा मोय न   छोड़ेगा। मौसी आप चिंता न करो। 

कुछ दिनों बाद शालू ने ससुर को राजी कर लिया कि  स्कूल में पड़ेंगी। शालू ही पूरी जिम्मेदारी लेती है। घर में डांस मास्टर भी आने लगा। ठाकुर कभी भगत से ,कभी सुधा से ,कभी अपने गुप्तचरों से जानकारी लेते रहे फिर सब नार्मल हो गया। दूसरी बेटियों के गुण अपनी बेटियों में भी तो ,होने चाहिए। ठाकुर को समझ  रहा था लेकिन हिम्मत की कमी थी। बहुये अब खुलकर जी  रहीं हैं। शालू ने मौसी की बात पर ताला लगाकर नदी में चाबी फेंक दी है। घर के लोग अब ,सामान्य तरीके से सामाजिक जीवन भी जी रहे हैं। शालू सब देख रही है। 


















































 

Thursday, January 11, 2024

सारंगिया बाबा 

हाँ ,यही नाम था उनका सारंगिया बाबा ,वे ,कहाँ रहते थे ,कहाँ जाते थे किसी को नहीं पता ,बस गली में सारंगी की आवाज सुनाई देती थी। कोई चालीस पैतालीस की उम्र का युवा पुरुष ,जो रहन -सहन से पचास का लगता था। आँखों में गजब का तेज ,काली सफ़ेद दाढ़ी ,लम्बे बाल ,सफ़ेद कुरता घुटनों तक ऊँची धोती ,एक चादर ओढ़े रहते हैं। राजस्थानी खड़ाऊं पहने रहते हैं। कंधे पर एक झोला रहता है जिसमें आटा ,दाल ,चावल के लिए जगह है। सिर पर पगड़ी जैसी पहने रहते हैं। हमेशा इसी गेटअप में दिखाई देते हैं। 

दो तीन माह में एक बार बाबा !! अवश्य दिखाई दे जाते हैं। दूर से जब सारंगी की धुन सुनाई देती है तब ,माँ बैठक में आ जाती हैं। जा ,सुनयना !! रोक ले बाबा को ,पानी ला ,दौड़कर लोटा भरकर पानी लाती  है सुनयना। बाबा आज का सुनाओगे ? कछु नाय ,आज तो फ़िल्मी गीत सुनाऊँगो। टीक दोपहर में बाबा धुन बजाते हैं --बनवारी रे --जीने का सहारा तेरा नाम रे --  

बाबा का चेहरा लगातार देख रही थी ,बंद आखें शून्य में रुकी हुई थीं। संगीत की धुन अजब सम्मोहन सा बिखरा  रही थी। सारंगी के तारों पर उँगलियाँ घूम रही थीं। जब भजन खतम हुआ तो ,बाहर महिलाओं ,बच्चों की भीड़ जम गई। बाबा एक गाना सुना दो ,आप कहाँ से सीखते हो ? बाबा मुस्करा दिए किसी से नहीं सीखता। महिला बच्चे से कह रही थी जा ,घर से बाबा को कुछ लाकर दे तब सुनाएंगे। नहीं माँ ,ऐसा नहीं है आप बैठो ,सुना देता हूँ। माँ ने पूछा -बाबा कहाँ रहते हो ? कहीं नहीं ,जहाँ प्रभु बुला लें। थोड़ी देर में चावल का ढेर लग गया। माँ !! आज तो सब साथियों का भोजन बन जायेगा। बाबा ने बताया हम आठ साधू भिक्षाटन पर हैं ,हमारी साधना का अंग है भिक्षा। तभी हमारा अहम् और अज्ञान नष्ट हो पाता  है। सारंगी ईश्वर की आराधना के लिए बजाता हूँ। मेरे गुरु योगिराज जी ने मुझे सारंगी भेंट दी थी। मैं हमेशा भजन गाया करता था। बाबा ,अचानक चुप हो गए। चलता  हूँ माँ ! सुनयना बोल पड़ी कब आओगे ?सारंगी बाबा !!बेटी जल्दी आऊंगा ,बाबा गली तक जाते दिखे ,फिर अचानक गायब हो गए। 

हम लोग कुछ दिनों तक बाबा की बातें करते थे। सभी लोग अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए। सुनयना बी ए करने के बाद माँ ,से गप्पें मार  रही थी तभी सारंगी की धुन सुनाई देने लगी। माँ ,ने दरवाजा खोल दिया ,सुन तो लग वही रहे हैं। जा पानी ले आ। आश्चर्य से उधर देख रही थी तभी झक्क सफ़ेद दाढ़ी वाले बाबा दिखाई दिए। बाबा !! आइये बहुत दिनों बाद आना हुआ ? हाँ बाबा हंस दिए ,इस बार हिमालय पर अधिक समय लग गया। तुम नहीं समझ पाओगे। बाबा फिर हंस दिए। बाबा !! पहले लड्डू खा लो ,पानी पीओ ,फिर बात करते हैं। माँ !! बेटी का ब्याह करो ,जी बाबा। आज क्या सुनाओगे बाबा !! बाबा ने धुन निकाली अफसाना लिख रही हूँ ,परवाना लिख रही हूँ ,दिल बेकरार का ,आँखों में रंग भरके ,तेरे इन्तजार का। बाबा का वही आध्यात्मिक रूप था। आँखें बंद थीं। देर तक एक ही पक्ति बजती रही। बाबा !! आप कैसे याद करते हो ? हम तो ईश्वर को ध्यान करते हैं ,उन्हीं के लिए गाते हैं। शब्दों से क्या फर्क पड़ता है ? बाबा के झोले में चावल भर दिए ,बाबा मुस्करा दिए। जैसे ही माँ ,पलटीं बाबा अदृश्य थे। गली में कोई नहीं था। माँ को एक ज्योतिपुंज दिखा था ,बाबा फिर कभी नहीं आये। 

सुनयना अब साठ बरस की हो  चुकी है। सारंगी बाबा उसकी यादों में आज भी मधुर स्वर सुनाते हैं। 

















































 

सन 1971  

हल्के हरे रंग के बेस रंग पर गुलाबी और नीले फूल के कपडे से बनी फ्रॉक पहने बानी तब दस बरस की रही होगी ,माँ ने फुग्गे वाली बाजू बनाई थीं। पहले माँ ही सबके लिए कपडे सिलती थी। भाई की शर्ट ,बहन की फ्राक सब एक ही कपडे से बन जाते थे। बच्चों को पता ही नहीं था कि शहर में यही काम दर्जी करता है। स्वेटर भी माँ बना देती थी। इतनी शिद्दत से सलाइयों पर माँ की उँगलियाँ चलती थीं मानो साथ में जीवन का पिटारा भी खुलता -सिमटता जा रहा हो। बाबा का मफलर ,अपने लिए शॉल फिर पौंचो बनाने लगी। गर्मी में सफ़ेद समीज ,चड्डी और ए लाइन कुरता भी माँ बना डालती थी। हम ही भाई -बहन हैं आसानी से पहचान हो जाती थी। 

स्कूल से आकर ,नहाधोकर गांव का एक चक्कर लगाना बानी का हुनर था। देखना होता था कौन जगा हुआ है उसके साथ खेल शुरू होगा। घरों की छतें आपस में जुडी रहती थीं ,भीतर  से घर भी खिड़की -दरवाजों से महलों की तरह एक दूसरे से अलग नहीं थे। बच्चे दिन भर धमाचौकड़ी मचाते रहते थे। एक दिन बाबा गेट के बाहर लम्बी और कम चौड़ी जगह खुदवा रहे थे। उन्होंने बताया -जब रात में दुश्मन बॉम्ब छोड़ेगा तब हम यहाँ छिप जायेंगे। 

बानी को कुछ समझ नहीं आया ,सुना था युद्ध हो रहा है ,ब्लैकआउट भी होता है ,रात में कभी -कभी सायरन भी बजता है तो ,हमारा परिवार तो पच्चीस लोगों  का है तो ,ये कब्र जैसी जगह तीन चार ही क्यों ? पिताजी ने खिड़की पर काला कपडा लगा दिया था। आगरा प्रसिद्ध पर्यटन स्थल था क्योकि ताजमहल यहाँ की सुंदरता को बढ़ाता था। पहली बार बानी को समझ आया कि कोई पाकिस्तान देश है जो ,युद्ध कर रहा है। हमारे वीर सैनिक बहादुरी से लड़ रहे हैं। अखबार आता था लेकिन उस समय तक पढ़ नहीं पाती थी। 

बाबा तो ,खुदाई करवाकर चले गए लेकिन बानी खड़ी सोचती रही कि गांव भर में तो ,हजारों लोग हैं उनका क्या होगा ? क्या बाबा स्वयं जिन्दा रहना चाहते हैं। सबकी चिंता उन्होंने क्यों नहीं की ? अजीब सी चिंता लिए बानी घर आकर माँ से बोली -माँ बाबा कितने स्वार्थी हैं। पूरी कहानी सुना दी। बानी !! बड़ों के लिए ऐसे नहीं बोलते ,उन्होंने कुछ सोचा होगा और बात टाल दी। प्रतिदिन जहाजों के उड़ने की आवाजें भी आती थीं। शाम होते ही हमारे काम संपन्न हो जाते थे। ताजमहल घर के पास था तो ,हमारी चिंता अलग थी अब ,पिकनिक मनाने कैसे जायेंगे? एक बार बानी घूमते हुए बाबा के घर चली गई ,वहां तहखाना खाली  किया जा रहा था ,क्योकि उसमें गेहूं भरे जाते थे ,बानी को लगा मैं ,तो यहाँ रोज खेलने आती हूँ ,एक बार भी नहीं कहा कि यहाँ छिपने आ जाना। 

माँ ,को जाकर पूछ लिया -माँ हम लोग कहाँ छुपेंगे ? कहीं नहीं बानी ,हम सब यहीं रहेंगे। कुछ नहीं होगा। सब ठीक हो जायेगा। बस हमें रात को लाइट नहीं जलानी है। खोदी गए गड्डों पर बच्चे मस्ती करते हैं। आज जब युद्ध की आहट सुनाई देती है तब ,71 के दिन याद आते हैं। युद्ध किसी भी देश के लिए ठीक नहीं। हम बीस साल पीछे चले जाते हैं। 

















































नमी न थी 

भारत के एक छोर से गंगा निकलती हैं और मैदानों की तरफ बहती जाती हैं। सब तरफ हरा -भरा दिखाई देता है ,कभी लगता है गंगा बुला रही है , मांझी बीच नदी में नाव खेता रहता है। उसे कभी भय नहीं लगता। गंगा सभी का भय दूर करती है। बचपन तो यमुना किनारे दौड़ते -भागते निकल गया। कभी गुड्डे -गुड़िया का खेल खेला ,कभी छत की अटारी पर किल किल कांटे खेलते रहे। जब चाहा ,गुड़िया का ब्याह होने लगता था। गर्मी की तेज हवाएं बैरन बन जातीं थी। घर से छत ,छत से चौबारा ,चौबारे से खेत की मेढ़ फिर सब्जी तोडना ,खेतों में दौड़ना ,गोबर से कंडे बनाना ,पुढे से पानी भरना ,गाय -बैल के लिए चारा काटना हमारे रोज के काम थे। 

सारे दोस्त मिलकर खेत पर जाते तब ,हुलाकडंडा खेल हमारा प्रिय खेल था। पेड़ पर चढ़ना फिर कूदना और भागना। पूरे  दिन ऊर्जा भरी होती थी। कभी थाली में रखकर खाना याद नहीं ,जब जो ,मिल गया खा लिया। बचपन सभी के जीवन का बेहतरीन समय होता है। उम्र जब ढलने लगती है तब ,मन फिर से वापस लौटता है। उन्हीं गलियों में भटकना चाहता है। जब युवा होते हैं तब ,कुछ होश नहीं रहता ,कब खाना खाया ,कब गर्मी आई ,कब बरसात आकर निकल गई। सहेलियों का एक दौर आता है ,कभी पढाई ,कभी किताबें ,कभी ठिठोली ,कभी रतजगा करना सब हाथ से रेत सा सरक जाता है। जब ,विवाह की बारी आती है तब ,सर्दी ,गर्मी ,बरसात समझ आती है। तोते के खाने के बाद ,मिटटी में गिरी गुठली फिर से नीम का पेड़ बन जाती है यह तभी समझ आता है जब ,किसी का इन्तजार करना पड़ता है। 

दस बरस तो जीवन का रस लेने में निकल ही जाते हैं। घर बसाना ,तबादला ,बच्चों के स्कूल ,पढाई इन सब के साथ अपना वजूद गुम जाता है। नहीं देख पाई कि बादल घुमड़े या नहीं ,बिजली कड़की या नहीं बस झट से कपडे उठा लिए। बच्चे बड़े हुए तब समय माया मोह से कुछ उखड़ा सा होने लगता है। अभी दिशा  ,काल ,मौसम सब अलग हैं। जिम्मेदारी पूरी होने की कामना लेकर हर देवी -देवता को खुश किया जाता है। प्रकृति का भान होने लगता है जब ,घर की मुंडेर पर चिड़िया घोंसला बनाती है तब ,अच्छा लगता है। जब ,गौरिया अपने चूजे उड़ा ले जाती है तब ,जीवन का सार समझ आता है। 

अभी मन की व्यथाएँ बदल गई हैं। जीवन की आप -धापी नहीं रही। बादलों के साथ सैर करना शुरू हो गया है। रोटी बनाना बंद नहीं हुआ ,न साफ़ -सफाई करना बंद हुआ। कमर के गलियारे में एक नरम सा कपडा लगा ही रहता है। अजब सा जिंदगी का मौसम हो रहा है। कभी खिड़की खुली है तो दरवाजा बंद है। दर वाजा  तो खिड़की खुली है। कोई ठहरी सी पगडण्डी दिखाई नहीं देती। शब्दों के भाव कलम से पेपर तक आते -आते तिरोहित हो जाते हैं। भीतर का ज्वालामुखी हजारों नदियां बन कर बिखर रहा है। जीवन की सड़क पर गड्डे न हों तो ,किनारा समझ नहीं आता। मौसम करवट बदल रहा है लेकिन आँखों की करें सूख रहीं हैं। कोई नमी नहीं। 








































 

विरक्ति 

अभी चौबीस बरस की ही हुई थी कि माँ ने कह दिया ,जया तुम्हारे लिए लड़का देख लिया है। मैं भौचक सी माँ को देखती रह गई ,माँ!! अभी तो पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई ,क्या गारंटी है कि वे लोग मुझे आगे पढ़ाएंगे ? माँ ,मुझे जॉब करना था ,अपने पैरों पर खड़ा होना था ,मुझे बताया तो होता ?गुस्से से तमतमाती कमरे में चली गई ,सबको जी भरकर गालियां  दे दीं। ऐसा लगा मानो ,सब कुछ मुझसे अचानक से छीन लिया गया हो। 

मई तक एग्जाम हो गए ,समय पंख लगाकर उड़ गया। चली गई नए घर और नए लोगों के बीच। मुझे ही समझना पड़ा किसको ,कब ,क्या चिहिए। जया ! चाय ,जया पानी देदो ,जया खाना दो ,जया आज दही बड़े खाने हैं ,जया आज कढ़ी -चावल बना लो। मैं ,जया न होकर एक मशीन बन गई। अपना ध्यान रखना तो भूल ही गई ,एक दिन पता चला कि गर्भवती हूँ। सासु जी थोड़ी नरम हो गईं ,पति हमेशा की तरह पति ही था। 

शाम को जब ,ऑफिस से लौटता तो लगता यही पूरा देश संभालता है ,जैसे राजा का देश निकाला हो गया ,पर ठसक बची हो ,कोई सलाम ही नहीं थोक रहा ,तो अजीब सी सनक पर सवार रहता। मेरी अकड़ भी जन्मजात थी ,तो कम न थी। राजा के सामने अदब से सर न झुकाया। दो बच्चे पैदा किये और परवरिश में लग गई। एक बार माँ के पास गई थी तो ,माँ बोल उठीं -जया पढ़ना चाहे तो ,पढ़ ले मैं सहायता करुँगी। अरुण अपनी राजशाही दुनियां में भटकता है ,घर चला रहा है। 

मैं ,बरसों तक जॉब का इंतजार करती रही ,कुछ काम किया भी लेकिन संतुष्टि नहीं मिल  सकी। माँ ,बाबा एक दिन हमेशा के लिए चले गए तो धीरे से पीहर भी छूट गया। मैं ,निरालम्ब अपने घौसले में पड़ी रहने पर मजबूर हो गई। सासुजी और ससुर जी भी चले गए। सपनों की दुनियां मेरी अपनी है ,वहां भी झाड़ियों में भटक जाती हूँ। मैंने ,जब -जब चाहा कोई मेरी आवाज सुने ,कोई नहीं सुन पाया ,फ़ोन भी नहीं आया। न किसी सखी का ,न किसी बहन का ,न किसी रिश्ते का। समझ आया कि खुद से सब ,झेलना है पति नाम के प्राणी के साथ। जब ,प्राण जाते हैं तब ,भी कोई आहट नहीं होती ,मन को एकाग्र और संयमित करना होगा। खुद के साथ चलना होगा। बंधनों के संबंधों से विरक्त होना होगा।