विरदा मौसी
दुबला पतला इकहरा शरीर ,पतली कमर ,बिना बदरी के वदन देखो तो ,नाजुक सा लगे। ढीली पैंट ,बुशर्ट गर्मियों की ड्रैस और स्वेटर ,टोपा ,मफलर ,इनर ,कम्बल ये सर्दी के कपडे होते थे। बाबूजी घर में तहमद और बंडी को ही धारण करते थे ,ऐसे थे बाबूजी। कभी -कभी बरसात के दिनों में विरदा मौसी के पास जाकर बोलते थे -आज पुए बना लो ,मैं सिकवा लूंगा।विरदा मौसी पहले अंगीठी जलाती फिर घोल बनाकर आग में हाथ डालकर जलाती और पुए सकती या तलती जाती। बाबूजी उन्हें उलट -पलट कर करारे करते और निकालकर बोलते -अब ,तुम तलो।
मौसी उनकी पत्नी है लेकिन कभी उनकी राय नहीं ली जाती। उनको लगता घर देखती है ,बाहर आना -जाना नहीं फिर क्या पता दुनिया दारी क्या है ? मौसी ,कभी उनके घर वालों पर बिफर जाती तो ,एक न सुनते। मौसी ही दोषी होती थी। जब दो बच्चियां पैदा हो गईं तो भी मौसी ही दोषी थी ,बेटा हुआ तो बाबूजी का भाग्य था। मौसी किसी तरह गुजारा करती रही। कभी सब्जी तो ,कभी दूध के लिए रास्ता देखती थी। बाबूजी सुबह निकलते तो ,रात को ही लौटते। मौसी ही बच्चों को पढ़ाना -लिखाना देखती। बच्चे सो जाते तब बाबूजी पधारते। जब ,मौसी काम की मशीन बन गई तब ,जिद पर अड़ गई ,अब ,अलग चूल्हा करना है ,पुरे घर का काम नहीं करना। तब ,बाबूजी को उन गांव वालों की फ़िक्र हुई जिन्हें मौसी ने कभी देखा ही नहीं। लोग क्या कहेंगे ? खर्च कैसे चलेगा ? सब मौसी के मुताबिक होता गया। फिर एक दिन मौसी बोल पड़ी -बिटिया बड़ी हो रही है ,लड़का देखो ब्याह करना है तब ,बाबूजी घबरा गए। अरे ! अभी तो ,बड़े भाई का लड़का क्वारा है ,हम कैसे ब्याह करें ?
मौसी फिर फ़ैल गई ,बाबूजी के पहचान वालों को खुलकर गलियां दीं। जब ,मैं बच्चों के लिए दूध चाहती थी ,खाना चाहती थी तब ,कहाँ थे आपके दोस्त और रिश्तेदार ? बाबूजी को निरुत्तर कर मौसी फफक कर रोती थी। बिटिया का ब्याह भी हो गया। बाबूजी भी रिटायर होकर घर की बैठक के राजा बन गए। पैंट -शर्ट खूंटी पर टंग गए। पजामा कुरता शरीर पर चढ़ गया। अब ,यार -दोस्तों का जमघट लगने लगा ,ताश की बाजियां चलने लगीं। पटिये बाजी शुरू हो गई।
मौसी खुश थी चलो -घर तो आबाद रहता है। बैठक में ही चाय की प्यालियाँ खाली होती रहती थीं। राजनीति से लेकर खेत -खलिहान तक की बातें होती रहती थीं। बाबूजी कभी किसी को दक्षिणा नहीं देते ,न सत्य नारायण की कथा करवाते। उन्हें किसी नक्षत्र का भय नहीं था। बन्दुक खरीद ली लेकिन कभी हाथ से उठाई भी नहीं। अभी सत्तर की उम्र हो लेकिन बेटी पराया धन होती है इस पक्ति को बदल नहीं पाए।
मौसी भी बूढ़ा रही है ,बहु आ गई है ,बचा -खुचा जीवन अब ,गुजर रहा है। बच्चे बाबूजी को नई तकनीक सिखाते हैं ,पर बाबूजी नेहरू ,इंदिरा के आगे कुछ सोच नहीं पाते। देर रात तक ,राजाराम की बगीची पर बैठना ,दोस्तों से गप्पें मारना साईकिल लेकर वापस आ जाना ,यही दुनिया है। पुराने किस्से ,कहानियां बेटियों के लिए यही बचा था। बाबूजी चाहते थे मौसी पहले मर जाय ,मौसी चाहती थी बाबूजी पहले जाय ,जिससे उन्हें कोई चिंता न रहे। दोनो ही समय के पहियों पर चल रहे हैं।
रेनू शर्मा
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