Wednesday, July 3, 2024

जिंदगी एक कैलेंडर  

 आज सुबह से ही सुरेखा की बहस पति से चल रही है ,तुम सुबह से अखबार लेकर बैठ जाती हो ,बाइयों से काम भी नहीं कराया जाता ? देखो -तुम्हारी बाई ने दरवाजा और जाली सब खोल दिया है ,क्या मच्छर नहीं आएंगे ? ए सी चल रहा है ,गुड़िया सोई है ,इन मूर्खों को ये भी नहीं पता कि क्या करना चाहिए ,क्या नहीं। तुम कुछ समझाती भी नहीं हो ?अब ,सुरेखा का  पारा सातवें आसमान पर चला गया है। क्यों री मुर्खा !! तुझे कितनी बार बताया है ,दरवाजा तुरंत बंद किया करो ,तुम्हें समझ नहीं आता क्या ? रोज तुम्हारे पीछे दौड़ती रहूं ,मुझे ये सब पसंद नहीं। 

अब ,इसमें मेरा क्या दोष ? विवेक रसोई में भी आ धमका ,ऊपर ए सी चल रहा है ,बंद करवा दो। अरे ! ये क्यों नहीं कहते कि मैं ,जाकर कर दूँ। तुम क्यों नहीं जाते ? प्रति दिन का छोटी बातों पर विवेक का चिल्लाना सुरेखा को नहीं अच्छा लगता। धीरे बोला करो ,पति हो तो ,क्या काम वालों के सामने कुछ भी बोलोगे ? सुरेखा भीतर ही सुलगती हुई काम किये जा रही है। सोचती है विवेक जल्दी ऑफिस जाये और थोड़ी देर सुरेखा अपने साथ रहे। बेवजह क्लेश करना उसे अच्छा नहीं लगता।

अभी पति -पत्नी अपनी सफाई देने लगेंगे ,कोई अपनी गलती नहीं मानेगा ,सुरेखा को लगता है थोड़ी देर रो लो और शांत हो जाओ। जिंदगी की घिसी -पिटी दिनचर्या से चिढ जाती है। नित नई बीमारियों ने डेरा डाला हुआ है तो और भी खींज जाती है। सुरेखा को न गर्मी सहन होती है ,न सर्दी। फिर पति की फरमाइशें पीछा नहीं छोड़तीं। बच्चों के काम ही पूरा दिन निकाल देते हैं। घर को साफ़ -सुथरा करना ,अपने काम ,ऊपर से जिंदगी एक कैलेंडर सी बदलती रहती है। 

सुरेखा की सखी रिया उसे मिलने आती है और बताती है कि इन्हीं उलझनों के चक्र से महिलाओं को निकलना होता है। एक संतुलन बनाना होता है। कुछ भी मुश्किल नहीं है। विवेक को भी समय दो ,सब ठीक होगा। इसी कैलेंडर की तरह चलती रहो। दोनो चाय पीते हुए ठहाके लगाती हैं। 

रेनू शर्मा 







 






















 

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