मैं ,आजाद हूँ जाने कबसे स्त्री ऐसे चौराहे पर खड़ी है ,जहाँ से कोई भी रास्ता उसके वजूद की तरफ नहीं मुड़ता। गुड़िया नाम है मेरा ,अशिक्षा का कलंक मिटाने के लिए बीए पास किया ,अज्ञान को मिटाने के लिए पूजा -पाठ ,व्रत -उपवास सब करने लगी। ज्ञानी भी समझती हूँ क्योंकि पता है ईशवर एक है ,मृत्यु अवश्यम्भावी है ,हमारे कर्मों पर सांसारिक प्रक्रिया निर्भर करती है ,इसीलिए स्त्री जन्म लिया है। एक धनवान परिवार में पांचवीं संतान के रूप में आ गई। ऐसा लगता है जाने कितने जन्मों की सजा भोग रही हूँ।
ऐसा नहीं है कि मुझे बोलने नहीं दिया गया ,या लिंगभेद का शिकार हुई ,मुझे लगा लड़की को दोयम दर्जा देना पुरुषों की एक चाल थी जो किसी भी तरह की हिस्सेदारी उन्हें नहीं देना चाहते थे। जब ,युवा हुई तब ,सोचती थी शायद पति मुझे मेरे होने का अहसास कराएगा ,मेरी हर सांस के साथ जीना ,मरना तय होगा ,लोग मेरी खुशहाल जिंदगी देख कर ईर्ष्या करेंगे। खुशियां सिर्फ सपना बन कर रह गई।
मेरे विवाह का योग भी जीवन के चालीसवें बरस में बना ,एक गरीब पंडित जो शास्त्रों का तुच्छ ज्ञाता था ,संस्कृत मध्यमा तक शिक्षित ,कथा ,प्रवचनों ,देवी -देवताओं की आराधना ,मंदिर ,देवालयों की साफ़ -सफाई से घर का खर्च चला पाता था। ऐसा नहीं था कि पिता अच्छा वर नहीं देख सकते थे ,जब विवाह योग बना तब तक उम्र की देहरी पार होने को थी। पंडित ने सोचा होगा -परिवार रईस है ,कुछ तो दान करेगा ?बोला था घर देंगे और तुम्हारी नौकरी लगवा देंगे। लेकिन हर सोचा काम नहीं बन पाता।
शादी के बाद पंडित के घर चली गई लेकिन भैया -भाभी पर आश्रित को वहां से निष्कासित कर दिया गया। फिर भी मैं ,गुड़िया भाभी का काम करने जाती जिससे खाना मिल सके ,शाम को कमरे पर आकर गिर पड़ती ,किसी तरह पति को समझाकर शहर ले आई ,शहर की रौशनी अधिक समय तक उजाला नहीं कर सकी. मास्टरी छोड़कर फिर पंडिताई की गई लेकिन पहले से स्थापित लोगों ने ज़माने नहीं दिया। थक हार कर ,पिता के घर आई ,कहा -आपने कहा था घर और जॉब लगवा देंगे ,पिता तैयार हुए लेकिन भाई -बहनों ने साथ नहीं दिया।
दौलत का मोह सारे रिश्तों पर भरी पड गया ,भाई ने एक अधबने घर से भी बेदखल कर बाहर कर दिया। पति के साथ मैं ,दर -दर की ठोकर खाने लगी। कुछ कहावतें मुझे अब ,समझ आ रहीं थीं। जिन भाई -बहनो के साथ चालीस बरस कुत्ते -बिल्ली की तरह लड़ते -झगड़ते ,खाते -पीते एक साथ निकाले वही लोग मुझे नहीं पहचानते। चाहती तो ,संपत्ति से अधिकार पूर्वक हिस्सा ले सकती थी लेकिन वकील को देने एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी ,किससे ,क्या बात करती ?बेटी ,रोटी के लिए भटक रही है जबकि पिता करोड़पति है।
माँ ,जब फिसल कर गिर गई तब ,नर्स बनकर सेवा की ,माँ भी कुछ नहीं कर सकी. आज कहाँ हूँ ,जी रही हूँ या मर गई कोई नहीं जानता। पंडित ने प्रयासों में कोई कमी नहीं छोड़ी लेकिन दुर्भाग्य था, हम दौनों को यूँ ही भटकना था।जाने कितने दिन -रात हमने निराहार बिता दिए ,सोचती थी शायद कोई मुझे खोज ले ,माँ ,कहीं से पुकारे ,किसी ने कभी आवाज नहीं लगाईं। तभी पता चला -पिता की मृत्यु हो गई है ,तब सीने पर पत्थर रखकर घर चली गई। ऐसा लगा मानो किन्हीं अजनवी लोगों के बीच आ गई हूँ। कोई हमसे बात नहीं कर रहा था। उन्हें लग रहा था कि हम अब ,नहीं जायेंगे। एक बेटी का सहारा मांगना गुस्ताखी हो गई। खून के लिए खून के आंसूबहाकर मैं ,वापस आ गई।
पंडित कभी भी धन नहीं कमा पाया ,वृन्दावन की गलियों में मुंह ढककर घरों का काम करने लगी। भगवान् कितनी परीक्षा लेंगे ,दुंगी। कुछ दिनों बाद बुखार और खांसी का सिलसिला शुरू हुआ तो ,ख़तम ही नहीं हुआ। शरीर का खून सूख गया है। डॉक्टर ने बता दिया अब ,अधिक समय नहीं है। पंडित सुबह निकल तो जाता है लेकिन शाम होते ही वापस आकर दवा लाता है ,मुझे कुछ खिलाने की कोशिश करता है। पचास बरस में लग रहा है सौ बरस जी ली। पंडित से अपने जीवन के लिए क्षमा याचना कर रही थी ,बस मुझे एक बार फोन पर बात करा दो ,कागज के टुकड़े पर नंबर लिखा था अपने ताऊ के बेटे से बात की ,उन्हें सब कहानी बताई। वे सब कुछ सुनते रहे और सांत्वना देकर फ़ोन रख दिया। दूसरा फोन अपनी सखी को लगाया जिसे कुछ पता नहीं था ,देर तक बात करती रही जब ,गुड़िया पूरी खाली हो गई तब ,थककर घर आ गई और पंडित ने पानी पिलाकर सुला दिया। सोच रही थी कभी बेटी मत बनाना। शिवरात्रि की अमावस्या को आजाद पंछी सी मैं, ,आकाश में उड़ रही थी ,पंडित पड़ोसियों के साथ मेरा संस्कार करने की तैयारी कर रहा था।
रेनू शर्मा
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