Sunday, June 16, 2024

समीक्षा  कालचक्र  

  हमारी पृथ्वी कालचक्र में ही अयन करती है ,हम भी अपना जीवन चक्र उसी तरह संपन्न करते हैं। डॉ विमल शर्मा की पुस्तक का शीर्षक कालचक्र जीवन के रहस्य को समझाने का प्रयास है। आत्मा ,परमात्मा ,कर्म -बंधन ,ध्यान ,योग जैसे शब्दों से नई ऊर्जा का परवाह किया है। रसायन शास्त्र में पारंगत होने पर भी हिंदी साहित्य की सभी विधाओं पर हाथ आजमाया है। डॉ शर्मा जी ने बखूबी हास्य -व्यंग्य की रचना [पत्नी पुराण ]को रचकर साहित्य क्षेत्र के अनेकों सम्मान पर कब्ज़ा किया है। 

तुझसे क्या कहूं ,ग़ज़ल संग्रह को पाठकों की भरपूर प्रशंसा मिली है ,श्रृंगार रस से पूर्ण उनकी रचनाएँ पाठकों को भिगोती हैं वहीँ ,कालचक्र उन्हें आध्यात्म की ओर ले जाता है। 

सुख -दुःख के जंजालों से तू ,मुक्ति पा। 

हर स्थिति में खुश रहने की युक्ति पा। 

ऐसा लगता है कवि जीवन के झमेलों से मुक्ति पाना चाहता है ,काल की समीपता का ध्यान आते ही ,जीवित रहने पर गुमान कर ,कहने लगते हैं ,असल में व्यक्ति जब मृत्यु की समीपता को समझता है तब ,लिखते हैं -

कोई नहीं है तेरा ,इस मिथ्या जग में। 

क्यों अपनी नीलामी करता रहता है। 

कवि रोज गंगा किनारे से निकलते हैं जहाँ ,चिताएं जलती रहती हैं ,पल भर ठहर कर चल देते हैं। मिथ्या जगत का रहस्य भी समझ आने ही लगेगा। एक स्थान पर कवि ने कहा है -सुख कवि के मन में पलता है ,दुःख सीने में पलता है। ये जमीं तुम्हारी ,आसमान भी तुम्हारा तो ,मृत्यु हमारी क्यों ? संसार की बाजीगरी कवि को समझ नहीं आती। चाँद तारे और सूरज भी उन्हें अकेला और तन्हा दीखता है। मानवीय पीड़ा ,एकाकीपन नीचे से अब ,ऊपर की ओर जा रहा है। कवि मन के घोड़ों को संयमित करने का मन्त्र देते हैं ,ऐसा लगता है शर्मा जी गुरु बन गए हैं। 

डॉ विमल शर्मा पाठकों को मृत्यु भय से मुक्ति का साहस बाँट रहे हैं। सुई धागे रखो साथ में ,उधड़े रिश्ते सिला करो। रिश्तों के बिखराब की पीड़ा दर्द देती है ,इसलिए सिलने का बंदोबस्त रखो। संसार को एक दर्पण सा कवि ने देखा है ,तभी कहा है -हर शख्स अपने ही कर्मों का आइना है। मुझसे सब ले लो बस आजाद छोड़ दो। बैरागी होने का इशारा कवि करता है। एक जगह थकान का अहसास होने पर कवि कहते हैं कि -

थक गए हैं हम ,सितारों को नदी में फेंकते। 

नादानी भरी झटपटाहट कवि के ऊपर हावी हो रही है। कभी ,संतुष्टि ,एकाग्रता ,समग्रता ,विनम्रता पर ध्यान केंद्रित कर कहा जाता है कि जगत की उलझनें अब ,मुझे विचलित नहीं कर सकतीं। वहीँ ,एक स्थान पर कहा जाता है कि चमक -दमक में कालिख भी छिप जाती है। नहीं ,कवि महोदय कालिख ही नजर आती है। किसी भरम में न रहें। 

डॉ विमल शर्मा जी ने अनगिनत विषयों को लेकर रचनाओं का जाल बिछाया है ,उनकी कलम आध्यात्म पर ही नहीं चली अपितु रिश्तों के तनाव ,बिछोह ,प्रेम पर भी कलम चली है। एक मुक्तक देखिये -

बरसों बरस के साथ की ,विश्वास ही बुनियाद है। 

किन्तु हमारे प्यार की लिपि का ,जटिल अनुवाद है। 

सुगम तरीके से प्यार की जटिलता का बखान किया है ,संसार के सारे काम सरल हैं ,बस प्यार ही जटिल है। कवि  का कहना है -वार्तालाप जघन्य हो गए ,जो विशेष थे ,अन्य हो गए। ऐसी चोट लगी अपनों की ,मूर्छित थे चैतन्य हो गए। करोना काल की मुश्किलें भी रचनाओं में मौजूद हैं। कवि अपनी रचनाओं में बोलते तो हैं ,लेकिन क्या असल जीवन में भी जीवन की सत्यता को जानते हैं या नहीं। कभी लगता है  कि पर उपदेस कुशल बहुतेरे ,पाठकों को उपदेश देते रहो। 

डॉ विमल शर्मा जी ने परिपक्व रचनाकार की तरह अपनी रचनाओं को स्थान  जो सराहनीय है। जैसे चित्रकार रंग से ब्रश भिगोकर मनमाने तरीके से चित्र बनाता है उसी तरह डॉ विमल जी ने काल चक्र की रचनाओं को चित्रित किया है। कभी ,भटकाव दिखाई दिया तो आध्यात्म पर चले गए ,संयम  की बात की ,खुद ही रास्ता बदल लिया और पाठकों को  भी सलाह दे दी। भाषा का प्रयोग बड़ी सूक्ष्मता से किया है। मुक्तक पठनीय हैं। शुभकामनाओं के साथ --

रेनू शर्मा 































































 

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