Saturday, June 22, 2024

मथनी  

 मथ लिया था  तन -मन ,
प्रणायाम की मथनी से। 
श्वासों में कम्पन भी आया  था ,
,शरीर प्रकम्पित भी हुआ था। 
तन और धरा के बीच ,
आधार भी निराधार हुआ था।
 फिर क्या हुआ ? क्यों हुआ ?
सब आखेट सा बन गया। 
प्रणायाम अब ,बिना प्राण के 
आयाम हो गए हैं। 
सहजता से चलती सांसें 
अचानक ,असहज हो रही हैं। 
तृप्ति सी हो गई है ,
जमीं से जुड़े अफसानों से। 
मथ  लिया है ,खुद को 
अब ,बादलों के पार डेरा 
दीखता है। तुम मथनी ही 
बन रह जाओगे। 
रेनू शर्मा 























 

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