मथनी
मथ लिया था तन -मन ,
प्रणायाम की मथनी से।
श्वासों में कम्पन भी आया था ,
,शरीर प्रकम्पित भी हुआ था।
तन और धरा के बीच ,
आधार भी निराधार हुआ था।
फिर क्या हुआ ? क्यों हुआ ?
सब आखेट सा बन गया।
प्रणायाम अब ,बिना प्राण के
आयाम हो गए हैं।
सहजता से चलती सांसें
अचानक ,असहज हो रही हैं।
तृप्ति सी हो गई है ,
जमीं से जुड़े अफसानों से।
मथ लिया है ,खुद को
अब ,बादलों के पार डेरा
दीखता है। तुम मथनी ही
बन रह जाओगे।
रेनू शर्मा
प्रणायाम की मथनी से।
श्वासों में कम्पन भी आया था ,
,शरीर प्रकम्पित भी हुआ था।
तन और धरा के बीच ,
आधार भी निराधार हुआ था।
फिर क्या हुआ ? क्यों हुआ ?
सब आखेट सा बन गया।
प्रणायाम अब ,बिना प्राण के
आयाम हो गए हैं।
सहजता से चलती सांसें
अचानक ,असहज हो रही हैं।
तृप्ति सी हो गई है ,
जमीं से जुड़े अफसानों से।
मथ लिया है ,खुद को
अब ,बादलों के पार डेरा
दीखता है। तुम मथनी ही
बन रह जाओगे।
रेनू शर्मा
No comments:
Post a Comment