रहिमन धागा प्रेम का ,मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर न जुड़े ,जुड़े गांठ पड जाय।
जब छटवीं सातवीं कक्षा में रहीम ,कबीर ,तुलसी ,मीरा ,सूरदास को पढ़ा करते थे ,तब उनके सामान्य अर्थ ही समझ आते थे। गूढ़ रहस्य और अर्थ अब समझ आता है। सभी कवियों ने आत्मीय शैली ,स्पष्ट भाषा जैसे अवधी ,ब्रज या खड़ी बोली में ही अपनी बात की है। हम उतना ही समझते थे जितना परीक्षा के लिए जरुरी होता था। घर आकर कभी -कभी विस्तार से भाई या बहन को समझा देते थे कि कवि यहाँ कहना चाह रहे हैं कि प्रेम रुपी धागे को तोडना नहीं चाहिए। बाद में अगर दोस्ती हो जाय तो ,पहले जैसी बात नहीं रहती। इससे अधिक खुद ही नहीं समझ पाते थे तो किसी को समझाते कैसे ?
अब जब भी ,कोई रिश्ता ,दोस्त या व्यक्ति का विश्वास ,भरोसा टूटता है तब ,समझ आता है कि रहीम दस जी क्या कहना चाह रहे हैं ? असल में कवि तो तब भी वही कहना चाह रहे थे ,जो हम आज समझ पाए हैं। रिश्तों के बीच सामंजस्य का अनुभव कम था। अपने लोग हर पल पास रहने का जाल दिखाकर हमारे भावों ,विचारों ,संवेदनाओं का उपहास करते हैं ,जीवन के ककहरे को अपनी तरह गढ़ने का प्रयास करते हैं। उन्हें जब भरोसा हो जाता है कि बंदा चंगुल में आ गया तो ,दोहन शुरू होता है। जो सहन कर रहा है वो मुर्ख भी नहीं है ,सामाजिक ,पारिवारिक ,आर्थिक शूल उसे वहीँ रुकने पर मजबूर करते हैं।
दिल टूटने -जुड़ने का क्रम अनवरत चलता रहता है। जब कर्कश बोला जाता है तब ,उसका जवाब देना मर्यादा के खिलाफ होता है। शातिर फितरत वाले लोग आपको इसी उलझन में डालकर रखते हैं कि आप समझ ही न पाओ ,क्या हुआ ? ऐसी बानी बोलिये --औरन को शीतल करे ,आपहु शीतल होय।
मस्तिष्क की टेडी -मेडी वीथिकाएं ,अनचाही शर्तों ,व्यवहार से मानसून के बादलों सी अचानक विस्फोट करती हैं। अंतरात्मा से कटु शब्दों की धारा सी बहने लगती है। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसके बाद व्यक्ति राहत महसूस करता है चलो -कुछ तो विजय मिली। प्रेम के धागे को चटकने से बचाने के लिए ये सब होता है।
माँ !! कभी नहीं समझा पाई आपसी रिश्तों की गरिमा कैसे रखनी है। कहाँ तक सहन किया जाय और कब ,हथियार उठाया जाय। प्राचीन कवियों ने बखूबी समझाया है। अपने आस -पास लोगों को भी समझने लगते हैं ,आँखों को देखकर ही पता चल जाता है ,कभी -कभी इंसान बेफिक्र होकर भरोसा और विश्वास ज्यादा करने लगता है ,यही लापरवाही उसे ले डूबती है। प्रेम के धागे को खींचने की कोशिश करोगे ,गांठ भी लग गई। फिर कैसे उस प्रेम को ग्रंथि हींन किया जा सकता है। रहीम दस जी का दोहा अब ,समझ आ गया है।
रेनू शर्मा
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