Sunday, May 26, 2024

जाल 

वय का बदलाव है 
या मानसिक विकृति ,
हर रोज ,तीक्ष्ण अपशब्दों को 
होले से, दोहरा लेता है। 
उसकी छटपटाहट यहाँ 
वहां ,दीख पड़ती है 
नयन कोर लाल हो ,
मुठ्ठियाँ भिंच जाती हैं। 
रोज की तरह वक्त के 
रुकने का भरम ,उसे 
सालता है ,शाम होते ही 
झूंठ को सच के साथ ,
गटकता है ,विकृति को 
नया रूप देता है।
 नारी को उलाहनों से ,
सींचता है कभी ,
शब्द वमन के रोग से 
ग्रस्त ,रोज शमशान से 
लौटकर भी ,अपना 
जाल तोड़ नहीं पाता। 
रेनू शर्मा 

























 

No comments: