जाल
वय का बदलाव है
या मानसिक विकृति ,
हर रोज ,तीक्ष्ण अपशब्दों को
होले से, दोहरा लेता है।
उसकी छटपटाहट यहाँ
वहां ,दीख पड़ती है
नयन कोर लाल हो ,
मुठ्ठियाँ भिंच जाती हैं।
रोज की तरह वक्त के
रुकने का भरम ,उसे
सालता है ,शाम होते ही
झूंठ को सच के साथ ,
गटकता है ,विकृति को
नया रूप देता है।
नारी को उलाहनों से ,
सींचता है कभी ,
शब्द वमन के रोग से
ग्रस्त ,रोज शमशान से
लौटकर भी ,अपना
जाल तोड़ नहीं पाता।
रेनू शर्मा
या मानसिक विकृति ,
हर रोज ,तीक्ष्ण अपशब्दों को
होले से, दोहरा लेता है।
उसकी छटपटाहट यहाँ
वहां ,दीख पड़ती है
नयन कोर लाल हो ,
मुठ्ठियाँ भिंच जाती हैं।
रोज की तरह वक्त के
रुकने का भरम ,उसे
सालता है ,शाम होते ही
झूंठ को सच के साथ ,
गटकता है ,विकृति को
नया रूप देता है।
नारी को उलाहनों से ,
सींचता है कभी ,
शब्द वमन के रोग से
ग्रस्त ,रोज शमशान से
लौटकर भी ,अपना
जाल तोड़ नहीं पाता।
रेनू शर्मा
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