बूचा का दर्द
मैं ,बूचा शहर हूँ ,यूक्रेन का चमचमाता शहर ,चौड़ी सड़कें ,आसमान छूती इमारतें ,सीधे खड़े पेड़ जो कभी ,मौसम की करवट बदलने पर ,घर के बुजुर्ग जैसे दिखने लगते हैं। बंद झरोखों से झांककर देखती युवतियां और वृद्ध सभी सूखी टहनियों को निहार कर ,फिर से पत्तियां और फूल आने की तसल्ली देते रहते हैं।
मेरी तरुणाई अभी शुरू ही हुई थी ,चहु ओर रौनक थी ,शांझ सबेरे खिलखिलाते मासूम चेहरे मेरी बर्फीली हवाओं के झोंकों को महसूस करने निकल पड़ते थे। मेरे दामन पर खुशगंवार रहने वाले बासिन्दे देर रात तक मेहनत करते ,मैं ,बूचा खुश था।
यहाँ -वहां बच्चे अपनी खिलखिलाहट से मुझे अपने जीवंत होने का भरोसा दिलाते रहते। क्या कहूं ? मैं ,बहुत ही दीवाना ,जीवन से भरपूर जवानी के लुत्फ़ ले रहा था। जब कोई बेपरवाह होकर मद मस्त पगडंडियों पर कदम बढ़ाता चलता है और नूरानी ख्वाब देखता चलता है तब ,ही कोई शैतान दोस्त राह में ,पत्थर डालकर यकायक ठोकर लगने पर ,हंसाने के लिए दूर छुपकर बैठ जाता है। ऐसा ही मेरे साथ हुआ। मेरा साहब जेलेंस्की है ,बहादुर है ,हिम्मत वाला है ,साहसी ,निडर और आत्म सम्मान वाला बंदा है पर न जाने क्यों ? राजनीति की ऊंच -नीच ,अहंवादी कुविचारों और अंतराष्ट्रीय कूटनीतियों के कारण हम बेहद पेचीदा हालातों में फंस जाते हैं। हमारे साथ भी यही हुआ।
मेरा तो ,कोई कसूर नहीं था। मेरे सीने पर आश्रय लेने वाले ,पशु -पक्षियों ,जानवरों ,मानवों का कोई दोष था। नदियां तो अविरल प्रवाहित हो रहीं थीं। जैसे मेरी शिराओं में रक्त बह रहा हो। मैं ,प्रतिदिन स्वयं को ऊर्जावान अनुभव करता था।
एक दिन अचानक बूम -भूम फटाक ,धड़ाम की आवाजें हुईं ,मैं ,थरथरा गया ,आकाश से जलती हुई उल्काओं जैसी मिशायल मेरे सीने में धंसती गईं। मैं ,अचेत होकर धरती की गॉड में समाने लगा ,ऐसा लगा मानो धरती माँ मुझे अपने आँचल में समेट रही है। मैं ,यहाँ -वहां बिछड़े अपने लोगों को नाहक समेटने की कोशिश कर रहा हूँ। रात भर चीख रहा हूँ। कोई नहीं सुन पा रहा ,ना जाने दुनियां बहरी सी हो गई है। इन अंतरिक्षीय आवाजों सामान तड़तड़ाहटों को सुनकर ,कराहने की आवाज मेरी फिजाओं में ,दर्द बनकर तैर जाती है।
मैं ,बेबस हूँ ,मेरी आत्मा कोई खींच ले गया ,शरीर पड़ा है ,मेरे बच्चे ,बेसहारा होकर इधर -उधर भागने का प्रयास कर रहे हैं। क्या करूँ ? कहाँ छुपा लूँ इन्हें ,कोई कंदरा भी नहीं जहाँ ,धकेल दूँ। मैं ,बूचा !! मेरे हाथ काट गए हैं ,लहूलुहान पड़ा हूँ। मेरे ही साये में ,बच्चों को बहशी मार रहे हैं। मेरी माता -बहनों -बेटियों पर जुल्म की इंतहां हो रही है। उन्हें शारीरिक ,मानसिक यंत्रणा दी जा रही है। मैं ,अपनी ही कब्र में धंसा जा रहा हूँ। कैसे सहन करूँ ?
मैं ,बूचा अभी मरा नहीं हूँ ,घायल हूँ ,ईश्वर मुझे शक्ति देगा। धरती माँ !! मुझे सहारा दे ,मैं ,फिर से जीवंत बूचा बन जाऊं।
रेनू शर्मा
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