आँसू
आंखें धीरे -धीरे
डबडबा रहीं थी ,
भीतर के ज्वार की तरंगें
रफ्ता -रफ्ता बढ़ रहीं थीं।
एक दर्द के साथ कुछ
निचुड़ा सा लगा ,
पलकों ने सहारा देकर
बूंदों के नन्हे सागर को ,
झलका दिया।
कपोलों से ढुलककर
सीने तक बिखर गए।
मानो सारी पीड़ा
तिरोहित हो ,
शरीर में फिर से
समां गई हो।
जाने कितनी बार
इस वेदना से
तड़फती रही।
कोई नहीं आया ,
कोई तो नहीं था ,
सुख -दुःख साथी
सब अहसास हैं।
भरम है ,भटकाव है।
यही भाव आसक्ति को
विरक्ति बना जाते हैं।
आंसू बह जाते हैं।
रेनू शर्मा
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