Tuesday, January 9, 2024

आँसू 

आंखें धीरे -धीरे 

डबडबा रहीं थी ,

भीतर के ज्वार की तरंगें 

रफ्ता -रफ्ता बढ़ रहीं थीं। 

एक दर्द के साथ कुछ 

निचुड़ा सा लगा ,

पलकों ने सहारा देकर 

बूंदों के नन्हे सागर को ,

झलका दिया। 

कपोलों से ढुलककर 

सीने तक बिखर गए। 

मानो सारी पीड़ा 

तिरोहित हो ,

शरीर में फिर से 

समां गई हो। 

जाने कितनी बार 

इस वेदना से 

तड़फती रही। 

कोई नहीं आया ,

कोई तो नहीं था ,

सुख -दुःख साथी 

सब अहसास हैं। 

भरम है ,भटकाव है। 

यही भाव आसक्ति को 

विरक्ति बना जाते हैं। 

आंसू बह जाते हैं। 

रेनू शर्मा 









































 

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