एक रात मैं ,
बेकरारी और विकार
के आलम में ,
जकड गई ,न
नींद आई ,न ख्वाबों ने
दस्तक दी।
अलसाई सी ,सुबह आई
तो ,नई मुसीबत गले पड़ गई।
राष्ट्र के नाम सन्देश था ,
कोविड आया है ,कोई
भीतर -बाहर न होगा।
आज पता चला ,
दादी जिसे हउआ कहती थी ,
वो ,दीखता नहीं बस ,
वार करता है।
कहीं ,बिछुड़ गए कहीं
मिल गए ,कहीं
श्वांस को निश्वांस कर गए।
कहीं भरोसा टूटा ,
विश्वास घात हुआ ,
शब्दों की भीनी चादर से
अपनों को ,छुपाया गया।
कहीं जान बचाने की जुगत में
जान दिए जा रहे थे।
मृत देह का बहिस्कार ,
बुजुर्गों का तिरस्कार हो गया।
रोज ,अपनों को गिनती हूँ ,
ये कैसा मंजर है ,
हर रात लम्बी हो रही है।
रेनू शर्मा
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