परी जब दस बारह बरस की रही होगी ,गांव की गलियों में सरसराती डोलती थी ,पूरे गांव की खबरें दादी को बताती थी। दादी !! कालू के घर लड़ाई है रही है ,काम के पीछे बाने जे न करो ,जाने जे न करो ,वो चाचा दारु पीके लुड्को परो ये ,तू चों गई बाके घर ? नाय दादी !!बाहर ते ही पतों पर गयो ,दरबज्जे की संध मैते देखी मैंने।अब ,मत जइयो। हओ ,नाय जाउंगी। तूतो ,बा पकडू ये लैबे गई ,सो नाय मिलो। दादी ! गांवभर की खबर तो मिल गई। दादी ! जा गेट ते गई ,बा दरबाजे ते आई हूँ ,मोय ना मिलो ,जाको मतलब कहूं गयो है। का ,करूँ खेतन पर जाऊं का ?नाय ,घर बैठ। बा घूरे को भेजूंगी।
दादी अपनी शेर छाप बीड़ी पीने में मस्त हो जाती है। परी ,चुपचाप घूरे को लेकर खेत पर निकल जाती है। कछु है तो नाय गयो ,एक ही तो भैया है ,रास्ते भर सोचती रहती है। तभी तो ,दादी ने पकडू नाम धरो है बाको। खेत की पगडण्डी पर उछलती -कूदती परी उड़ती जा रही है। गांव की सौंधी सुगंध ,गोबर की महक ,नालियों में भरे कीचड की सड़ांध ,सफ़ेद कीड़ों की उछल -कूद देखती रहती है परी ,क्या भी तो करती है।
दूर एक खेत में ,कुछ लड़के क्रिकेट खेल रहे हैं ,घूरे चिल्लाया -देख ! लाली ! बिनमें होगा हमारा लाला ,तू ,यहीं रुक। मैं ,बुलाबत हूँ। दूर से भाई को देखकर राहत की सांस ली। दादी !! जे रहो तुम्हारो छोरा ,चों रे ! कहाँ गयो हतो ,मैया की चिंता नाय हती। माँ ,सुबह से घर के काम समेटती रहती है। आधा लीटर दूध में से ,आधा पकडू को पिला देगी ,आधा दही बना देगी। बाबा को दही खिला देगी ,परी और छोटी को बाजरे की रोटी आलू को साग। जाने कितने बरस तक यही चलता रहा।
स्कूल जाने लगे तब ,समझ आया कि किताब खरीदने जाना पड़ेगा ,पैदल स्कूल जाओ ,घर आकर कुंए से पानी भरो ,खाना बनाओ ,बासन मांजो। दैनिक कार्यों की फेहरिस्त पीछा नहीं छोड़ती थी। पकडू गेहूं पिसाने जाता था ,दो चार घंटे तक आता था। माँ ,खाने में कभी भेद -भाव नहीं करती थी पर बाबा के लिए लड़कियां पराया धन थीं। उनको एक ही चिंता थी कि बेटियां इतना पढ़ लें कि ब्याह हो जाय। अपना मन होता था तब ,ताश -पत्ती जरूर खेलते थे क्योकि टाइम पास के लिए क्या करें ? शायद यही सोच पकडू की बन गई ,दौलत का हिसाब लगा लिया और मस्ताने लगा।
बाबा ने कभी माँ ,को रकम नहीं दी ,उन्हें लगता था जिसे जरूरत है मुझसे लो। दादी ,बीमार हुई और चली गई हमेशा के लिए ,परी तो मानो ,खाली
सी हो गई ,गांव में घूमना बंद हो गया , बारहवीं के बाद परी का ब्याह कर दिया गया। चार महीना बाद छोटी भी ससुराल चली गई। परी जब विदा हुई थी पकडू के लिए जी भरकर रोई थी। नए घर जाकर सब समझ गई कि रिश्तों की अहमियत कब ,कितनी होती है। शादी होते ही माँ का बेटा भी उसकी पकड़ से दूर हो गया। पूर्वजों की विरासत का तीया -पांचा कर मालिक बन गया।
बाबा की तरह पैसे के लिए माँ को परेशान करने लगा। एक दिन बाबा भी चले गए ,कतरनें कब तक चंदोबे को साध सकती हैं ,तो सब कुछ बिखर ही गया। पकडू अब ,पारस हो गया था। माँ ,जब तक थीं बहनें आती रहीं ,अब ,पीहर ख़तम हो चुका था। गांव की खुशबु अब नहीं रही। अब ,तो सखी सहेलियां भी नहीं रहीं। इतने जीवन में ही सब बताया कि यही सत्य है ,सब कुछ यहीं छोड़कर जाना है ,पर इंसान समझता कहाँ है। माँ ,बाबा के श्राद्ध कर्म पर बुलाया गया था। उसके बाद न छोटी गई न परी।
रेनू शर्मा
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