पहाड़ों के शिखर से
कलकलाती ,सरसराती
कभी ,
छलांग लगाती हूँ।
कभी ,
जघन्य वन की
वक्र वीथियों से
सिमटती ,सकुचाती
बहती हूँ।
कभी ,
हरे -भरे मैदानों में
सरपट प्रवाहित
होती हूँ।
मैं , निरंतर जीवंत
प्राणदायनी नदिया सी
विराजती हूँ।
कभी ,उच्च श्रृंगों पर
प्रतिष्ठित मणि सी
विराजती हूँ।
कभी ,बरसाती नदी सी
व्यक्त अपने वजूद को
दर्शाती हूँ।
कभी , विरल थपेड़ों को
झेलती सुरसरि सी
जीवन चक्र के
वायुकृत आवेग को
स्वयं में समाहित कर
हौले -हौले सरकती हूँ।
मैं , जिंदगी हूँ।
रेणुशर्मा
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