चिन्दियाँ उतर रहीं हैं
पल -पल
गुजरे लम्हों की
जो ,कभी
जख्म कर गुजरते थे।
घृणा की परत सी
छा ,जाती थी ,
तब ,मुस्कुरा जाती थी ,
किसी ,नाटकीयता पर।
तब ,एक ख़ामोशी सी ,
रूह तक फ़ैल जाती थी।
अब , हर पल को जी रही हूँ
जो, कभी नागवार था।
कैसा ? न्याय या रीति है ,
सुलग रही हूँ
उन ,लम्हों की
बेरुखी मे।
किरच सी ,उधड़ रही है
इन यादों के
समशान से ,
हंसी आती नहीं
इन , स्मृतियों के
बाजार से।
रेनू शर्मा
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