Friday, January 27, 2023

किरच


चिन्दियाँ उतर रहीं हैं 

पल -पल 

गुजरे लम्हों की 

जो ,कभी 

जख्म कर गुजरते थे। 

घृणा की परत सी 

छा ,जाती थी ,

तब ,मुस्कुरा जाती थी ,

किसी ,नाटकीयता पर। 

तब ,एक ख़ामोशी सी ,

रूह तक फ़ैल जाती थी। 

अब , हर पल को जी रही हूँ 

जो, कभी नागवार था। 

कैसा ? न्याय या रीति है ,

सुलग रही हूँ 

उन ,लम्हों की 

बेरुखी मे। 

किरच  सी ,उधड़ रही है 

इन यादों के 

समशान से ,

हंसी आती नहीं 

इन , स्मृतियों के 

बाजार से। 


रेनू शर्मा 





























 






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