वो ,रोज
आराम कुर्सी पर
कुशन बदलती है।
कभी ,सर्द रात के
सन्नाटे में ,
कम्बल डाल जाती है ,
कुर्सी के बाजू पर।
कभी ,बरसात की भींगी
रातों में ,आँगन में
उतार देती है ,
कुर्सी को।
कभी ,जून की तपती
दोपहर को ,
गीली तौलिया
सुखाती है ,कुर्सी पर।
जाने क्यों ?
वो ,रोज
आराम कुर्सी पर
कुशन बदलती है।
रेनू शर्मा
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