दिन आकर
यूँ ही ,मुंह चिढ़ाकर
चल देता है।
नास्ता ,खाना
फिर कुछ खाना ,
शब्दों से खेलना ,
कुछ ,पात्रों के साथ
कभी ,रो लेना कभी ,
हंस लेना कभी ,
वीरान गली में
मटर गस्ती करना कभी ,
मोहल्ले के बच्चों को
पतंग लूट कर देना
बस ,यूँ ही सिमट जाता है
दिन।
शाम के अँधेरे में
मानो ,अपने ही हाथों
लुटा दिया दिन।
रात को चुराने
सपने नहीं आते।
थक कर यूँ ही
चल देता है दिन।
रेनू शर्मा
No comments:
Post a Comment