पार्क में ,रोज आती है
डबडबाती आँखों से
इधर -उधर कुछ
ढूंढती है।
डरी ,सहमी सी
झूले के पास आकर
खुद में ही सिमटकर
खड़ी हो जाती है।
इन्तजार करती है
शायद उसकी बारी आएगी
पर , लूट -झपट
यहाँ भी जारी है।
धीरे से ,खिसकती है
फिसलपट्टी पर
वहां ,से भी धकेली
जाती है ,नीचे।
रेत में धंसे पैर
देखकर ,खुश होती है।
गेट तक जाती है ,
कल फिर आने को।
रेनू शर्मा
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