कितनी रातें जागकर
तुम्हें , थपथपाया था ,
अनगिनत पलों में
तुम्हें ,सीने से लगाया था।
बार -बार ढाल बनकर
आ गई ,जब
पिता ने फटकारा था।
कई बार ,मंदिर के
आले से निकालकर
तुम्हारे हाथ में ,
थमाया है।
कितनी बार
खिड़की के बाहर
तुम्हारी परछाईं देखकर
कुण्डी खोली है।
अब ,तुम बोलते हो
माँ ,ऐसा कैसे चलेगा ?
माँ ,तुम असहनीय हो
माँ ,तुम हमारे साथ नहीं रह सकतीं
माँ ,तुम कहीं चली जाओ
तब ,मैं ,आँगन
में दौड़ते तुम्हारे ,
गिरते ,उठते क़दमों को
देखकर खुश होती हूँ।
दौड़कर आकर मेरा
आँचल खींचते हो
तब ,मैं मंत्रमुग्ध होती हूँ।
क्योंकि ,मैं ,तुम्हारी माँ !! हूँ।
रेनू शर्मा
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