आभा देखने में सुन्दर , गोरा रंग ,काले घुंघराले बाल , पढ़ने में होशियार , काका की संतान है ,काकी दिनभर घर के काम करती रहती है , काकी को काम की कोई जल्दी नहीं रहती ,जब थक जाती है तब ,आँगन में चारपाई बिछा कर सो जाती है। काका का रुतवा हिटलर जैसा है , जब ,तक काका घर में रहते हैं सब मांद में छिपे रहते हैं। उनका कहना है सब व्यस्त रहो ,पढ़ो या काम करो।
आभा , बड़ी है कॉलेज जाती है ,पैदल ही जाना पड़ता है क्योंकि कोई साधन नहीं ,सायकिल चलाओ या पैदल चलो। लौटकर घर के बिखरे काम भी देखने होंगे। पानी की समस्या कभी नहीं सुधरी ,नमक वाला पानी पम्प से निकलता है ,पीने के लिए गांव के बाहर कुए से लाना पड़ता है। कोई सुलझाना भी नहीं चाहता , गांव भर के लोग दुखी हैं पर कोई समाधान नहीं। घर के पिछबाड़े गाय बंधी है। तब गाय का काम बारी -बारी से सभी को करना पड़ता है।
जब बारिश आती है तब ,ओसारे में रखी लकड़ी गीली हो जाती है उसी से खाना बनाना पड़ता है। काकी ,चूल्हा फूंक -फूँक कर खांसने लगती है तब ,आभा ही खाना बनाती है। समय की दौड़ काम के साथ होती रहती है। ब्याह की उम्र तो आकर चली गई , एक जगह रिश्ता तय हुआ भी तो टूट गया। आभा ,बार -बार नुमाइश नहीं लगाना चाहती। काकी तैयार करती है पर आभा अब नहीं सुनती।
कभी टीपना नहीं मिलता ,कभी नक्षत्र नहीं मिलते , कभी शक्ल नहीं सुहातीं ,कभी शिक्षा आड़े आ जाती है , कभी उम्र दगा दे जाती है। दस बरस तक आभा यही करती रही लेकिन अब नहीं। सोलह सोमबार भी कुछ न कर सके। अब सोच लिया स्कूल में पढ़ाऊंगी एक दिन दूसरे शहर में डेरा बसा लिया। कुछ दिनों में ही प्रधानाचार्या का काम संभाल लिया। आभा को अब न किसी विवाह की जरुरत थी न किसी सहारे की।
हजारों बच्चों की माँ बन गई थी , ईश्वर से लौ भी तभी लग पाती है जब , सारी कामनाएं तृप्त हो जाती हैं। आभा ऐसी सन्यासिन बन गई जिसे यंत्रणा के साथ संन्यास दिलाया गया हो। अजनबी लोगों के बीच त्याग की मूर्ति बन गई। स्वयं को शिक्षा के लिए होम कर दिया। काका ने थोड़ा पैसा आभा को दे दिया तब ,भाई परेशान हो गए। बेटी के लिए सारे दरवाजे बंद क्यों रहते हैं समझ नहीं आता। अब ,तो आश्रम ही घर है। जो घर था वह तो ,उजड़ गया।
रेनू शर्मा
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