मुखौटा
बादलों का जमाबड़ा बढ़ रहा है , अभी तक ,न जुताई हुई है ,न गुड़ाई न बीज खाद मिला है। सरकारी ऑफिस पर अभी तक ताला लगा है। साब ! पैसा ही दिवा देते तो अच्छा था। और बताओ क्या समस्या है ? हमारे गांव से दूसरा गांव दस किलोमीटर दूर है साब ! सड़क ही बनवा देते। स्कूल तो है पर मास्टर खेत का काम करता रहता है , बच्चे खेलते रहते हैं , हमारी औरतिया डलिया बना लेती है , चटाई बना लेती है ,साब ! शहर में कोई खरीदे तो अच्छा हो जाय। हम ,कहाँ जाए , कैका बेचें कछु समझ नहीं पड़ता। ठीक है ,हम सरकार से बात करते हैं। अरे ! गुप्ता जी कृषि विभाग में फोन करिये कौन हैं ?हम कागज बनवाते हैं ऐसा बोलकर बनवारी लाल गाड़ी में बैठे और चले गए।
अब ,देखना हम सबकी समस्या ख़तम होगी। का ख़तम होगी ? गाड़ी में बैठने वाला क्या जाने हमारा दुःख। कालू मास्टर ! देखना कल ही खेत का काम तो शुरू हो जायेगा। आठ दिन हो गए खेत जाते हुए न खाद मिली न बीज। घास बढ़ रही है , पहाड़ों की तलहटी के खेत सुन्दर पेंटिंग जैसे दीखते हैं ,कहीं आम के बाग़ हैं ,कहीं केले के खेत हैं। जब ,आसमान से बूंदें गिरती हैं तब दूर -दूर तक खुशबु फ़ैल जाती है।
कहने को आदिवासी इलाका है लेकिन लोग शहरी खान -पान के आदि हैं. दाल -चावल ,दलिया के साथ अब ,चटनी ,अचार ,पापड सब खाया जाता है। बनवारी लाल आदिवासी कल्याण योजना समिति के अध्यक्ष हैं। दूसरे दिन से ही अफसर सलाम ठोकने आने लगे ,क्यों मिश्रा जी ! देर काहे हुई आने में वो सर ! सड़क ठीक नहीं थी साइकल से आया। तिवारी को बुलाइये एक खाका बनवाइए ,सरकार के पास बजट भेजना है कि हमें कितना बजट चाहिए यहाँ के विकास के लिए। जरूरी कागज तैयार होते हैं और सब लोग शहर कूंच कर जाते हैं।
एक महीने के भीतर बनवारी लाल आकर सड़क के लिए नाप -तौल करवाते हैं , साब ! अभी गिट्टी डलवा देते हैं। अभी टेंडर होगा ,फिर ठेका बनेगा तब,जाकर बन पायेगी सड़क ,वो भी बानी तो। साब ! एक मुश्त पैसा दिलवा दें तो थोड़ा काम शुरू हो। बनवारी लाल गांव में राजा जैसे पूजे जाते हैं। बनवारी लाल ही इनकी सरकार हैं। लोग उनके सिद्धांतों के कायल होते जा रहे हैं।
अबकी बार चार महीने बाद बनवारी लाल की शकल गांव में दिखाई दी है , ब्रह्मा गांव का मुखिया है वही उनकी देख भाल करता है। ब्रह्मा ! ये इलाका इतना सुन्दर है की जाने का मन ही नहीं करता ,सोचता हूँ यहीं थोड़ी जमीन ले लूँ। कोई बेचना चाहे तो बताना। जी साब ! मैं बताता हूँ। ब्रह्मा सोच में पद गया उसके अलावा किसी के पास इतनी जगह नहीं कि बेच सके। तभी ब्रह्मा को मिथुआ आता हुआ दिखा ,अरे मिथुआ !! सुन तो साब ! को खेत खरीदना है , मैं सोच रहा था आम का बाग़ ही बेच दूँ , बड़ी मुशीबत आती है ,आधी फसल तोते ,चिड़िया खा जाते हैं ,आधी फसल आंधी में गिर जाती है ,कभी दाना आया ,कभी नहीं भी आता। अरे! दादा बायग तो अपने पुरखों का है क्यों देते हो ? कह रहा था बीस लाख नगद देगा , पक्की रजिस्ट्री करेगा। बाग़ को हम ही देखेंगे वो तो बस मालिक होगा। बस ,फसल का पैसा लेंगे। कह रहा था ,शहर जाकर खाता खुलवा देगा ,कभी भी निकालो ,कभी भी डालो। बाग़ कहाँ जा रहा है ? रहेगा तो हमारे पास ही न।
बनवारी सुबह से नहा -धोकर आ गया है , हाँ भाई ब्रह्मा ! क्या सोचा है ? बात पक्की है। मुबारक हो ब्रह्मा। दूसरे दिन ब्रह्मा और मिश्रा जो नीरा अंगूठा छाप है ,साथ आया मिथुआ कौन सा पढ़ा -लिखा है। शहर में कागज का काम पूरा हो गया , खाते के पैसे भी जमा हो गए। गांव आकर ब्रह्मा कुछ अनमना सा है , भीतर ही कुछ घबराहट हो रही है ,शायद ठीक नहीं हुआ ?ब्रह्मा की आत्मा कराह रही थी।
जो पैसा सरकार गांव के विकास के लिए दे रही थी ,वही पैसा बनवारी लाल ने ब्रह्मा के बाग़ में लगा दिया। उसे तो सुन्दर जगह पर जमीन चाहिए थी सो मिल गई। सिद्धांतों की आड़ लेकर बनवारी गांव वालों से धोखा करता रहा। भोले -भले लोग गांव से आकर शहरों में अपना हुनर बेचते हैं। एक धूर्त अध्यक्ष का मुखौटा उतर गया है ,अब वे सस्पेंड हैं। दूसरा व्यक्ति राम भरोसे आया है , गांव वाले कहते हैं ,पहले काम करो तब ,बात करेंगे। कोई खातिरदारी नहीं।
रेनू शर्मा
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