पुरुष ही इस सृष्टि और घर -परिवार का नियंता है ,यह कटु सत्य है। हम विज्ञान की बात ही कर रहे हैं। हमारे समाज ,घर ,परिवार और कुल को चलाने वाला भी पुरुष ही माना जाता है। पुत्री को एक धरोहर के रूप में संभाल कर रखा जाता है। उनका मानना है कि बेटी पराया धन है ,उसकी रक्षा करना ,पढ़ाना ,शादी करना हमारा काम है। वंश तो सिर्फ बेटे से ही चल सकता है। उन्हें नहीं पता डी,एन ,ए ,क्या बला है ,बस बेसिक जानकारी है।
जिन घरों में बेटा नहीं हो पाता वहां सिद्ध पुरुषों के आशीर्वाद लिए जाते हैं।
राजा महाराजा भी इस समस्या में उलझे रहते थे , कई शादियां कर लेते थे फिर भी पुत्र नहीं मिला ,तो दत्तक पुत्र पाने के लिए प्रयास करते थे ,ताकि वंश आगे चलता रहे। कई विदुषी कन्याओं का जिक्र भी आता है जो राजवंश को लेकर चलीं। धीरे -धीरे पुत्रियां भी वारिस समझीं जाने लगीं।
एक समय पर बेटियों को पैदा होते ही मार दिया जाता था। क्योंकि एक राजा दूसरे पर आक्रमण कर उस राज्य के धन के साथ ही स्त्रियों का हरण भी कर लिया करता था। यह प्रथा सामान्य लोगों में भी डर पैदा करती थी। सब जब सामान्य हुआ तब एक कन्या से चार से पांच पुरुष विवाह करने लगे क्योंकि अनुपात बिगड़ गया था। बेटियां कम लोग सुरक्षित रख पाते थे। संपत्ति विवाद तो कम हुए लेकिन पारिवारिक समस्या होने लगीं। महाभारत काल इसका उदाहरण है।
यदि घर में दस बच्चे हैं तो , संपत्ति का अधिकार लड़के को ही मिलेगा ,लड़की को नहीं। विवाह के पश्चात पिता अपनी बेटियों को संतान भी नहीं मानता। बेटा ही संतान होता है। बहुत कम उदाहरण हैं जहाँ बेतिया बराबर की हकदार हैं। माता -पिता जब बेटी को बराबर मान देंगे तब ,ही बेटी का मान जीवित रह पाता है। अब ,पश्न उठता है ? बेटी के इस अपमान का उत्तरदाई कौन ? हमारा समाज , परिवार ,माता -पिता और कहीं दूर बेटी भी जो , माता -पिता के सम्मान के लिए कुछ बोल नहीं पाती।
विवाह के बाद का परिवार अपना भी होता है और नहीं भी , रिश्ते इतने नाजुक होते हैं कि लड़की वहां भी कुछ नहीं बोल पाती और जिंदगी भर यूँ ही भटकाव में ही रहती है। औरत एक नाजुक फूल की बिखरी पंखुड़ी जैसी इधर -उधर उड़ती ही रह जाती है। कानून सिर्फ कागजी बनकर रह जाते हैं। बेटियां आज पढ़लिखकर पिता का हाथ बाँट रही हैं लेकिन वही के वहीँ संतान बेटा ही है।
रेनू शर्मा
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