किरदार जीना सीख लो
जब ,किसी नाटक में किरदार को श्रेष्ठता प्रदान करने के लिए , अभिनेता या अभिनेत्री पात्र में जान भरने के लिए , पात्र के भीतर उतर जाते हैं या कहैं कि पात्र को जीना शुरू कर देते हैं ,तभी अभिनय उच्च कोटि का माना जाता है। लोग ताली बजाकर उसका स्वागत करते हैं। उसी तरह लिखने के लिए भी लेखक या लेखिका को अपनी कहानी के पात्र को जीना पड़ता है। हम कह सकते हैं कि अलग -अलग पात्रों जीना पड़ता है। तभी सर्व श्रेष्ठ रचना बन पड़ती है। पात्र और शब्दों का सामीप्य बनाकर रचना पैदा की जाती है।
लेखक सभी पात्रों के साथ जीना सीख लेता है।यदि कहानी में गांव की औरत का जिक्र है तो उस औरत का दर्द ,पीड़ा ,काम ,परिवार ,मज़बूरी ,भूख सब भोगनी पड़ती है तब जाकर एक चरित्र पन्ने पर उतर पाता है। ह्रदय से भोगे गए विरह ,वेदना ,मिलन कहानी या आलेख की गरिमा को कायम रख पाते हैं। पाठक उस अभिव्यक्ति को अहसास कर पाता है।
लेखक जब एक वैश्या के किरदार को रचता है ,तब उसकी मज़बूरी ,वजूद , अहमियत सब कुछ ध्यान में रखकर शब्दों से खेलना पड़ता है। तभी उसके हक़ में कहा जा सकेगा। उसकी प्रताणना ,बहिष्कार ,परेशानियां सब रचनाकार को भोगनी पड़ती हैं तब जाकर एक पात्र बन पाता है। जब एक युवा पुत्र किरदार के रूप में आता है तब ,उसकी आदतें , रहन -सहन ,दोस्त ,दुश्मन ,बाजार के किस्से ,ठिकाने ,स्कूल और कॉलेज सब कुछ माला की तरह शब्दों को पिरोना पड़ता है। कभी बुजुर्ग ,बच्चे कभी प्रेयसी कभी पत्नी ,पति कभी पुत्र ,सहेली ,चाची नानी ,दादी सब बनना पड़ता है। परिवार के रंग में सतरंगी रंग भरकर प्यार , संवेदना सब दिखाना होता है।
युवा वर्ग की त्रुटि बताकर भी उसकी आवश्यकता को बताना होता है। किसी से मोहभंग न होने देना ही श्रेष्ठ रचना कहलाती है। नित नया पात्र रचता है और बदलता भी है। कलम रुकते ही लेखक की दुनियां भी बदल जाती है। लेखन भी कोई बच्चों का खेल नहीं। जब कोई चित्रकार रंग भरता है तब ,उसकी कूंची इधर -उधर घूमती रहती है और सुन्दर चित्र बन जाता है। इसी तरह शब्दों के साथ खेलकर कहानी रचना भी अजब काम है। हर महान कवि कालिदास जैसा नहीं हो सकता , एक स्त्री द्वारा ललकारना और प्रज्ञा जाग्रत हो जाना। ये महज एक आध्यात्मिक उन्नति की ओर संकेत मात्र है।
लेखक होने के लिए विचार ,भाव ,संवेदना ,शब्दों का ज्ञान ,पात्रों के साथ जीना -मरना आना चाहिए। दुःख में आंसू नहीं आते या सुख में खुलकर हँस नहीं सकते तो लेखन नहीं हो सकता , बिना आत्मा या शरीर के पिंजड़ा मात्र होगा। शब्दों का अर्थ , भाव , भावार्थ , सही प्रयोग , विचार शीलता सब व्याकरण आना चाहिए। प्रकृति के पास ,जमीन से जुड़कर जीने वाला ही आत्मा से लिख कर विचारों को अभिव्यक्त कर सकता है।
रेनू शर्मा
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