Monday, January 10, 2022

कूँआ 

शहरी दुनियां से कुछ दूर हमारा गांव अपनी निराली रंगत लिए सूरज उगने के साथ ही , उठ जाता था और सूरज अस्त होते ही , सोने लगता था। मुझे याद है जब , भीषण गर्मी पड़ती थी तब ,नंगे पैर  आँगन में दौड़ लगा देते थे , तलवे जलने लगते थे उस पल सोचती थी जो ,लोग खेतों पर काम करते हैं उन पर क्या गुजरती होगी ? कोई नहीं समझ पाया हम क्या , सोच जाते थे। कभी जब पानी ख़तम हो जाता था , माँ ,कह देती थी , जा कुएं से पानी भर ला। एक बड़ा घड़ा ,उसके ऊपर छोटा घड़ा , बाल्टी , रस्सी सब एक साथ खेत की ऊँची -नीची मेंड़ से पगडण्डी को नापती हुई बढ़ जाती थी। 

ऐसा नहीं था कि मैं अकेली पानी लाने जाती थी ,जो बहुएं कूएँ  चढ़ नहीं सकती थीं ,उनके घड़े भी मैं भरती थी , जब वहां कोई और नहीं होता तब कह देती , भाभी आ जाओ , कोई नहीं आ रहा ,भरलो पानी जल्दी से। उन बहुओं को हौसले का सहारा देकर , उनके भीतर झांकने का प्रयास करती थी। रोज मेरे आने की आहट ,उन्हें कुएं तक लाती थी और एक अनजाना सा रिश्ता हम  बीच जुड़ता जा रहा था। 

जब ,घर आने में देर होती तब, माँ पहले से ही कह देती उपकार कर रही होगी , धोबी की बहु पर या कछिया की बहु पर। माँ , समझती थी कि गांव की गलियों से निकलकर खेत  की मैड़ पर चलकर पानी लाना कोई आसान काम नहीं। औरतों की इस समस्या को न तो गांव का मुखिया समझता था और न उनके घर वाले , पानी लाना स्त्री का काम है। यही सोच थी। 

कुँए की चौपाल मुझे याद है ,हम सब सहेलियों के मिलने की जगह थी , गप्पें मारते थे ,  तरफ की न्यूज़ लेने का अड्डा था। गांव की कौन सी बहु सबसे सुन्दर है ,  कौन बहु माँ बनने वाली है , कौन अपने पीहर गई है ,सब पता रहता था। कब सास से झगड़ा हुआ ,कब जिठानी से तकरार हुई सारी समस्याओं का समाधान कुँए पर हो जाता था। कुँए की कसम खाकर साक्षी भी मिल जाता था। बारिश की गन्दी गदली गलियों में भी पानी लाना बंद नहीं किया। जाते समय बोलती जरूर थी ,चों रे काछी के नाली साफ़ नाय करी , लाली! करी तो हती , जा चौमासे में जे सब है गयो। लाली ! ले हमारे आँगन में ते निकर जा। इस तरह एक परिवार रास्ते पर भी बसता था। 

अब , सरकारी नलों  से सब लोग पानी भर लेते हैं , सब अपनी दुनियां में व्यस्त हो गए ,कुँआ ,अब बंद हो गया ,ऊँची इमारतें खड़ी हो गईं हैं। ऐसा लगता है जैसे एक पीड़ी गुजर गई।  जब , गांव जाती हूँ अब ,भी उन गलियों को खोजती हूँ पर सब बदल गया है , न लोग अपने रहे ,न घूंघट वाली बहुएं। दूर से आती हुई हवाओं का स्पर्श ले अपनी बेटी को बताती हूँ ,  देखो वो रहा कुँआ। 

रेनू शर्मा 








 

















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