प्रकृति की हरी -भरी वादियों में , जहाँ तक नज़र जाती है ,बड़े -बड़े पहाड़ , हर -भरे मैदान , ऊँची -नीची पगडण्डी ही दिखाई देती है , आसमान पर बादल इधर -से -उधर भाग रहे हैं ,अचानक एक पतली ,सकरी ,पगडण्डी पर मैं , पति के साथ धीरे -धीरे खिसक रही हूँ , अगर एक कदम भी डगमगा गया तो हजारों फ़ीट नीचे खाई में समां सकती हूँ , मेरी धड़कन धौकनी सी बज रही है , आगे बढ़ रही हूँ , पर्वत माला से खौफनाक हवाओं की सीत्कार सुनाई दे रही है , पशु -पक्षियों की सुरीली आवाज भी डरा रही है , कैसी , निर्जीवता है यहाँ ? तभी , एक गुफा के दरवाजे पर स्वयं को खड़ा पाती हूँ।
अंदर गुफा की दीवारों से लगातार पानी का रिसाव हो रहा है , नीचे चट्टान पर फिसलन है ,घुप्प अँधेरे में मुझे अपना हाथ भी दिखाई नहीं दे रहा है , आत्मिक ऊर्जा बल लगातार बढ़ रहा है , हम सब देख पा रहे ,हैं भीतर एक कौने में दिए की बाती सा कुछ जगमगा रहा है , शायद शिव ही यहाँ विराजमान हैं , प्रणाम कर आँखें बंद कर तुरंत खोल लेती हूँ , वापस पगडण्डी मेरा भय बढ़ा रही है , सोचती हूँ कैसी , वीरानियों में मैं , भटक रही हूँ , प्राकर्तिक सम्पदा हर तरफ छिटकी है , मेरे शरीर का रोम -रोम रोमांचित हो रहा है लेकिन मार्ग की विकटता मुझे शिथिल कर रही है , परमानन्द की प्राप्ति हो रही है।
यह स्वप्न मुझे निरंतर आता रहा जबतक मैं , पचमढ़ी के गुफा मंदिर नहीं गई , स्वप्न मुझे अमृत पान कराते हैं।
रेनू शर्मा २०. ९. २००३
अंदर गुफा की दीवारों से लगातार पानी का रिसाव हो रहा है , नीचे चट्टान पर फिसलन है ,घुप्प अँधेरे में मुझे अपना हाथ भी दिखाई नहीं दे रहा है , आत्मिक ऊर्जा बल लगातार बढ़ रहा है , हम सब देख पा रहे ,हैं भीतर एक कौने में दिए की बाती सा कुछ जगमगा रहा है , शायद शिव ही यहाँ विराजमान हैं , प्रणाम कर आँखें बंद कर तुरंत खोल लेती हूँ , वापस पगडण्डी मेरा भय बढ़ा रही है , सोचती हूँ कैसी , वीरानियों में मैं , भटक रही हूँ , प्राकर्तिक सम्पदा हर तरफ छिटकी है , मेरे शरीर का रोम -रोम रोमांचित हो रहा है लेकिन मार्ग की विकटता मुझे शिथिल कर रही है , परमानन्द की प्राप्ति हो रही है।
यह स्वप्न मुझे निरंतर आता रहा जबतक मैं , पचमढ़ी के गुफा मंदिर नहीं गई , स्वप्न मुझे अमृत पान कराते हैं।
रेनू शर्मा २०. ९. २००३
No comments:
Post a Comment