कानपुर में बाबूपुरवा काफी बड़ा मोहल्ला था ,हम वहां बहुत बड़े परिवार के साथ रहते थे , जिसमें ताऊजी तायाजी , बच्चे , माँ , पिताजी और दस भाई -बहिन। घर के पास ही थाना भी था जहाँ माँ के रिश्ते में बहन लगती थी , वे रहा करती थीं। उनके पति पुलिस में दरोगा जी थे। हम माँ के साथ अक्सर वहां जाते थे। वहां सिपाही सारे काम करते थे हम बहुत खुश होते थे ,पुलिसवालों का डर निकल गया था। माँ ने कहा था ये मौसी हैं , देखने में सुन्दर थी लेकिन थोड़ी घमंडी सी थी। उनका पांच साल का एक बेटा था विजय , हम लोग उससे कम ही बात करते थे क्योंकि उनके सामने हम लोग बहुत ही मामूली लोग थे।
वहां से दस किलोमीटर दूर वारादेवी का मंदिर था जहाँ मेला लगा करता था। नौ देवी के अवसर पर वहां बहुत अधिक भीड़ होती थी। इसबार ताई के साथ सबने मेला जाने का विचार किया और हम सब लोग पैदल ही वहां जाने के लिए दोपहर में चल दिए। उस समय न सड़क थी और न कोई साधन हम सब लोग जंगल के रस्ते चल दिए। कभी मेला देखा नहीं था इसलिए बड़ी भारी उत्सुकता थी। लोग पूजा का सामान लेकर जा रहे थे , कोई दंडवत करते हुए जा रहा था , कोई जयकारे बोलता हुआ जा रहा था। किसी व्यक्ति ने अपने गालों से लोहे की छड़ पार करली थी ,कोई स्वयं को कोड़े मार रहा था। कितना अजीव सा दृश्य था , सबकी अपनी आस्था अलग तरह से दिखाई दे रही थी। हम सभी सोच रहे थे यही मेला है और तय किया कि अब कभी नहीं आएंगे।
माँ ,से हम सब लोग अपनी थकान के लिए शिकायत करने लगे ,लेकिन माँ ने बताया कि अभी तो दर्शन के लिए चलना है , हम लोग भीतर गए बड़ी मुश्किल से देवीजी के दर्शन हुए क्योंकि वहां अलग तरह की आस्था वाले लोग अधिक थे , उन्हें पहले मौका दिया जा रहा था। पुजारीजी अपने काम में व्यस्त थे। हम लोगों को एक बड़े चबूतरे पर खड़ाकर दिया गया वहीँ खाने का सामान लाकर दिया गया तब जाकर थकान कम हुई। पिताजी ने हमारी पसंद से कुछ खिलोने भी दिला दिए। हम लोग खुश थे।
पुजारीजी भक्त जनों की सरिया निकालकर भस्म लगा देते और व्यक्ति चला जाता , किसी को कोई समस्या नहीं हुई। जाने कैसा विश्वास था ? आस -पास के लोगों के मिलन का मेला था। हर समय घर की चारदीवारी में रहनेवाली महिलाएं खुश होकर चाट -पकोड़े खा रही थी। बच्चे खुश थे , कोई रो रहा है , किसी की माँ नहीं मिल रही , किसी की बहिन , सब जगह अफरा -तफरी मची थी लेकिन सब खुश थे।
आज भी वारा देवीजी का मेला लगता होगा लेकिन हम भूल नहीं पाते , हमारे मन मस्तिष्क पर तो वही मेला बस गया है। आस्था और विश्वास कभी नहीं टूटते।
विद्या शर्मा
वहां से दस किलोमीटर दूर वारादेवी का मंदिर था जहाँ मेला लगा करता था। नौ देवी के अवसर पर वहां बहुत अधिक भीड़ होती थी। इसबार ताई के साथ सबने मेला जाने का विचार किया और हम सब लोग पैदल ही वहां जाने के लिए दोपहर में चल दिए। उस समय न सड़क थी और न कोई साधन हम सब लोग जंगल के रस्ते चल दिए। कभी मेला देखा नहीं था इसलिए बड़ी भारी उत्सुकता थी। लोग पूजा का सामान लेकर जा रहे थे , कोई दंडवत करते हुए जा रहा था , कोई जयकारे बोलता हुआ जा रहा था। किसी व्यक्ति ने अपने गालों से लोहे की छड़ पार करली थी ,कोई स्वयं को कोड़े मार रहा था। कितना अजीव सा दृश्य था , सबकी अपनी आस्था अलग तरह से दिखाई दे रही थी। हम सभी सोच रहे थे यही मेला है और तय किया कि अब कभी नहीं आएंगे।
माँ ,से हम सब लोग अपनी थकान के लिए शिकायत करने लगे ,लेकिन माँ ने बताया कि अभी तो दर्शन के लिए चलना है , हम लोग भीतर गए बड़ी मुश्किल से देवीजी के दर्शन हुए क्योंकि वहां अलग तरह की आस्था वाले लोग अधिक थे , उन्हें पहले मौका दिया जा रहा था। पुजारीजी अपने काम में व्यस्त थे। हम लोगों को एक बड़े चबूतरे पर खड़ाकर दिया गया वहीँ खाने का सामान लाकर दिया गया तब जाकर थकान कम हुई। पिताजी ने हमारी पसंद से कुछ खिलोने भी दिला दिए। हम लोग खुश थे।
पुजारीजी भक्त जनों की सरिया निकालकर भस्म लगा देते और व्यक्ति चला जाता , किसी को कोई समस्या नहीं हुई। जाने कैसा विश्वास था ? आस -पास के लोगों के मिलन का मेला था। हर समय घर की चारदीवारी में रहनेवाली महिलाएं खुश होकर चाट -पकोड़े खा रही थी। बच्चे खुश थे , कोई रो रहा है , किसी की माँ नहीं मिल रही , किसी की बहिन , सब जगह अफरा -तफरी मची थी लेकिन सब खुश थे।
आज भी वारा देवीजी का मेला लगता होगा लेकिन हम भूल नहीं पाते , हमारे मन मस्तिष्क पर तो वही मेला बस गया है। आस्था और विश्वास कभी नहीं टूटते।
विद्या शर्मा
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