मई -जून की दोपहर में जब गर्मी बढ़ जाती तब घर की बुजुर्ग महिलाएं कहीं भी दरवाजे की चौखट पर सर रखकर , नीचे खेस बिछाकर सो जाती ,खेस सूती धागे से बने मोटे चादर होते हैं जो गांव के ही जुलाहे द्वारा बनाये होते थे। तब , बच्चों की खुराफात शुरू होती थी , सभी इस इंतजार में रहते कि उनके खर्राटे शुरू हों और हम बाहर चबूतरे पर जाकर खेलें। सामने गली थी ,जिसमें से हवा आती रहती थी ,गांव के बुजुर्ग भी वहां आराम करने आया करते थे। चौपाल जैसा नजारा रहता था। जब सारे बच्चे एकत्र हो जाते तब सोचा जाता कि आज कहाँ जाएँ ,क्योंकि बच्चों की संख्या के अनुसार ही निश्चित किया जाता था कि आज छुपन -छिपाई खेलना है या आँख -मिचोली , कंकड़ खेलना है या बम्बे में नहाना है या फिर पोखर पर जाना है। अगर कहीं नहीं जाना तो चबूतरे पर ही गुड़िया से खेलना है।
बच्चों को तो सबसे ज्यादा मजा पोखर पर ही आता था ,वहां एक आम का पेड भी था , पेड़ के नीचे स्वाफी बिछाकर कल्लू दादा सोता मिलता था ,नीचे गिरे आमों को स्वाफी मैं बांध लेता था , हम लोग बारी -बारी से घूमकर देख लेते कि दादा सोये हैं या जागे हैं। धीरे से एक लड़का पेड पर चढ़ता बाकी लोग पास के खेत में छुप जाते , अगर दादा को पता चल जाता तो खेत वाले दोस्त इधर -उधर भागने लगते जिससे की पेड वाले लड़के को नीचे उतरने को मिले और दादा के स्वाफी में बंधे आम भी नदारत हो जाते। पोखर काफी बड़ी थी , दादा कबतक सबके पीछे भागता , थककर , नाराज होता और गलियां बोलने लगता , हम सब खट्टे -मीठे आम कहते हुए घर आ जाते।
गांव के सारे घर उस पोखर की मिटटी से ही बने थे क्योंकि चिकनी मिटटी बारिश का पानी बहाती रहती है। हर बार दीपावली और होली पर भी घर वहीँ की मिटटी से बनाये जाते थे। पोखर के किनारे भुस का ढेर ड़ालकर मिटटी से मिलाया जाता था ताकि भुस और मिटटी एकसार हो जाएँ उसीसे घर बनाते थे। कोई आसान काम नहीं था घर बनाना।
आम की एक डाली पोखर के ऊपर भी आती थी , वहां के सारे आम पोखर में ही गिरते थे ,तब सारे बच्चे दुखी हो जाते थे , अब क्या करें ? पक्षियों के गिराये हुए आम ही बच्चों को बड़ी मुश्किल से मिल पाते थे। इस तरह आम पाने में भी घंटों लग जाते थे। कभी जब दादा पकड़ लेता तब , सारे आम भी छीन लेता और कान पकड़कर खींचता सो अलग। दादा से आंखमिचौली तो रोज का सबब बन गई थी , दादा ने कब करवट ली , कब शौच के लिए गया बच्चों को सब पता था। कच्चे आमों की महक किसी मयखाने से कम भी नहीं थी।
जब हम लोग ताऊजी के साथ पोखर पर जाते तब , दादा खुद से आम देता था तब तो मुझे भी लाली बोलता था। तब , मुझे लगता दादा कितनी जल्दी हमें भूल जाता है , शाम से दोपहर तक ही बदल जाता है। करीब पचास बरस से ज्यादा हो गया पोखर अभी भी है लेकिन कोई भी अब मिटटी के घर नहीं बनाता , भैंस आज भी वहीँ पानी पीने जाती हैं , आम का पेड़ अब , भी है बूढ़ा हो गया है लेकिन फल अभी भी दे रहा है , दादा तो जाने कब का सिधार गया पर सब कुछ आज की सी बात ही लगती है। पोखर के आम खाने के लिए आज के बच्चे नहीं जाते , उन्हें तो घर पर ही सब कुछ मिल जाता है। हम लोग तो परिंदों की तरह पूरे गांव में उड़ा करते थे ,आज भी मेरी यादों में पोखर समाई है।
विद्या शर्मा
बच्चों को तो सबसे ज्यादा मजा पोखर पर ही आता था ,वहां एक आम का पेड भी था , पेड़ के नीचे स्वाफी बिछाकर कल्लू दादा सोता मिलता था ,नीचे गिरे आमों को स्वाफी मैं बांध लेता था , हम लोग बारी -बारी से घूमकर देख लेते कि दादा सोये हैं या जागे हैं। धीरे से एक लड़का पेड पर चढ़ता बाकी लोग पास के खेत में छुप जाते , अगर दादा को पता चल जाता तो खेत वाले दोस्त इधर -उधर भागने लगते जिससे की पेड वाले लड़के को नीचे उतरने को मिले और दादा के स्वाफी में बंधे आम भी नदारत हो जाते। पोखर काफी बड़ी थी , दादा कबतक सबके पीछे भागता , थककर , नाराज होता और गलियां बोलने लगता , हम सब खट्टे -मीठे आम कहते हुए घर आ जाते।
गांव के सारे घर उस पोखर की मिटटी से ही बने थे क्योंकि चिकनी मिटटी बारिश का पानी बहाती रहती है। हर बार दीपावली और होली पर भी घर वहीँ की मिटटी से बनाये जाते थे। पोखर के किनारे भुस का ढेर ड़ालकर मिटटी से मिलाया जाता था ताकि भुस और मिटटी एकसार हो जाएँ उसीसे घर बनाते थे। कोई आसान काम नहीं था घर बनाना।
आम की एक डाली पोखर के ऊपर भी आती थी , वहां के सारे आम पोखर में ही गिरते थे ,तब सारे बच्चे दुखी हो जाते थे , अब क्या करें ? पक्षियों के गिराये हुए आम ही बच्चों को बड़ी मुश्किल से मिल पाते थे। इस तरह आम पाने में भी घंटों लग जाते थे। कभी जब दादा पकड़ लेता तब , सारे आम भी छीन लेता और कान पकड़कर खींचता सो अलग। दादा से आंखमिचौली तो रोज का सबब बन गई थी , दादा ने कब करवट ली , कब शौच के लिए गया बच्चों को सब पता था। कच्चे आमों की महक किसी मयखाने से कम भी नहीं थी।
जब हम लोग ताऊजी के साथ पोखर पर जाते तब , दादा खुद से आम देता था तब तो मुझे भी लाली बोलता था। तब , मुझे लगता दादा कितनी जल्दी हमें भूल जाता है , शाम से दोपहर तक ही बदल जाता है। करीब पचास बरस से ज्यादा हो गया पोखर अभी भी है लेकिन कोई भी अब मिटटी के घर नहीं बनाता , भैंस आज भी वहीँ पानी पीने जाती हैं , आम का पेड़ अब , भी है बूढ़ा हो गया है लेकिन फल अभी भी दे रहा है , दादा तो जाने कब का सिधार गया पर सब कुछ आज की सी बात ही लगती है। पोखर के आम खाने के लिए आज के बच्चे नहीं जाते , उन्हें तो घर पर ही सब कुछ मिल जाता है। हम लोग तो परिंदों की तरह पूरे गांव में उड़ा करते थे ,आज भी मेरी यादों में पोखर समाई है।
विद्या शर्मा
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