बड़ा आँगन पुराने घरों की वह आराम गाह हुआ करता था ,जहाँ बड़ी -बूडी , बहुएं , बेटियाँ और नन्हे -मुन्ने बच्चे रोजमर्रा की जिन्दगी से ऊब कर , कुछ समय के लिए हास -परिहास , खेलकूद , उछलकूद और गाँव से लेकर शहर तक की बातें किया करते थे ।
हमारे आँगन में एक नीम का पुराना पेड था और सबके बैठने का ठिकाना भी , जब होश संभाला तब भी , आँगन की नाली में ही सु -सु के लिए दादी भेजती थी । सावन के महीने में हम लोग नीम की डालियाँ बाँट लिया करते थे और मूंज की मजबूत रस्सी से झूला डाल कर बरसते पानी में भी झूला करते थे ।
जब भी नीम के पेड पास होती ऐसा लगता मानोउसकी एक -एक डाली मुझसे बातें करती है . पत्तियां झुककर कुछ सुनाना चाहतीं हैं । पकने पर निबोरी तोड़कर खाती तो लगता जैसे सारी मिठास इसी में डाल दी है ।
हर रोज आँगन में जाकर मस्ती करने का हम सब बेसब्री से इंतजार करते , मेरा भाई हमेशा सरे कंचे जीत लेता , जब हार सहन नही होती तो आखिरी दांव पर बीच खेल में कंचों को लूट लिया जाता । झगडा इस कदर बढ़ जाता कि दादी को आना पड़ता ।
गुडिया की सगाई हो या टिप्पा खेलना , गिल्ली डंडा हो या धेरी फोड़ , सिकंतरी हो या कुछ और सारे खेल दिन भर आँगन में ही खेलते रहते । मिटटी खोदकर टिप्पा खेलने की जगह बना ली गई थी , उसके ऊपर कोई पैर रख देता तब झगडा होता , बाबा को लाकर दिखा दिया था , बाबा देखो ये हमारा खेल है , हमेशा यहीं रहेगा , यह कंचे की जगह है , यह गुल्ली की । बाबा हमारी नादानी पर हंसते फ़िर कहते बेटा यहाँ तो कुछ भी स्थाई नही है । सब तुम्हारा रहेगा , हमेशा और अन्दर आ जाते ।
आँगन ही चौबारा था , जब तक हम सब लोग एक दूसरे को देख न लेते चैन ही नही पड़ता था । मैं सिर्फ़ यह देखने के लिए दूसरे घरों में टाक लगाती थी पता चले वे लोग इस समय क्या कर रहे हैं । बड़ा मजा आता था , फिजूल हरकतों में , हमारी दीवार से लगा एक मानसिक रूप से कमजोर बुआ का घर था , उनका नाम शरवती था , हम लोग हास -परिहास करते रहते थे । बुआ अपने भावों को हाथ पैरों की मुद्रा बनाकर स्पष्ट करती रहती थीं । हम बार -बार पूंछते बुआ क्या कर रही हो ? उन्हें तंग करते रहते थे ,
शरबती बुआ का गला बड़ा सुरीला था , पुराने सावन की मल्हारें , फिल्मी गाने , और न जाने क्या -क्या उन्हें याद था , हम जिद करते बुआ गाना सुना दो और वे गाने लगतीं .... अफसाना लिख रही हूँ , दिले बेकरार का ... आंखों में रंग भरके तेरे इंतजार का ....अफसाना लिख रही हूँ , जाने किसका इंतजार था उन्हें , माँ अक्सर उनके लिए खाना भेजा करती थी । कभी कभी तो उनके साथ बैठकर खा भी लेती थी ।
दूसरी बुआ जब मिलतीं तब देश -विदेश से लेकर गाँव नगर से लेकर , देश के हालत पर भी बातें हो जातीं , जब पूरे विश्वास से उनकी बात का जवाब मैं देती तब वे कह उठतीं तू तो गजब करेगी , कितना स्पष्ट बोलती है , झुकने की बात तो करती ही नही है । यही क्रम रात भर भी चलता रहता , वहां से किसी का उठने का मन नही होता ।
आज कॉलेज मैं क्या हुआ ? किस टीचर ने क्या पहना था , आदि बेसिर पैर की बातें हमारे मनोरंजन में शामिल रहतीं । दिन भर के कूदे कचरे को गप्पों के माध्यम से निकलकर हलके हो जाया करते थे ।
बड़ा आँगन कितना बड़ा था , कितना अपना था , हमराज था , कितने उतर चढाव हमारे साथ उसने भी झेले । जब आपस में झगडा हो जाता तब तब एक वीरानी सी घेर लेती आँगन में आकर बैठते लेकिन बात किसी से नही होती , कई बार अकेले ही आँगन में जाकर नाचने लगाती , खुश होती और कहती देखो आँगन कोई साथ दे या न दे तुम मुझसे नाराज नही होना , मुझे तुमसे प्यार है , तुम्हारे साथ मेरी यादें जुड़ी है , तारों की शपथ लेकर प्यारी सी पप्पी आँगन में फैलाकर अपने कमरे में चली जाती ।
शादी के बाद उसी आँगन से विदा होकर ससुराल चली गई , अब वो आँगन नही रहा क्योंकि बंटवारा जो कर लिया सबने अपने हिस्से का आँगन बाँट लिया । लेकिन आज भी मेरी यादों में आँगन जिन्दा है , नीम का पेड कट दिया गया है लेकिन आज भी उसकी हरियाली नया स्पंदन पैदा कर्तियो है , शरबती बुआ का गाना याद आता है ....अफसाना लिख रही हूँ ...दिले बेकरार का , आंखों में रंग भरकर तेरे इंतजार का ......
विशाल आँगन में कुटुंब भर के बच्चों का खेलना , एक दूसरे को जोड़ता है , संयुक्त परिवार में गूंजती किलकारियां , अठखेलियाँ , नोकझोंक जीवन पर्यंत सबको गुदगुदाती है ।
रेनू ....
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