Tuesday, January 27, 2009

शहतूत का पेड


ताज देखना है तो , चलो खेत पर , ताज का शार्टकट दीदार सिर्फ़ हमारे शहतूत के पेड से ही सम्भव था । गर्मी की छुट्टी में गाँव आने वाले बच्चों से एक रुपये के टिकिट के साथ हमारा गाइड ग्रुप दोपहर में खेतों की घास भरी मेंड़ से दौड़ता हुआ चल देता था । मेड पर लम्बी घास इतनी पैनी होती थी कि कभी -कभी पैरों में कटने से खून भी निकल आया करता था ।लेकिन मुहब्बत के परचम कीदूर चमकती सफ़ेद परछाई को देखने के लिए ये सब मुश्किलें मामूली बातें हुआ करतीं थीं ।


शहतूत के पेड के पास पुराना ट्यूबवेल था , जहाँ बैलों की जोड़ी, चमडे के मोटे थैले में पानी भरकर हौदी में भर देती थी और वहाँ से नालियों से पानी निकलकर खेतों की मेडों से होता हुआ सिंचाई करता था । कई बार बैल और पुरहे के बीच की रस्सी पर हम झूला झूलते थे । बाबा देखते ही चिल्लाते - छोरी मरेगी क्या ? प्यार भरी डांट फटकार तो सैकड़ों बार लगा करती थी जिसका कोई असर हमारे ऊपर नही ।

एक बार ताज देखने के साथ ही शहतूत के पेड पर हुल्लक डंडा खेलने का विचार किया गया , हम चार लोग थे , सब लोग इस बात पर सहमत हुए कि जो दो फुट लंबा डंडा लेकर दौनों पैरों के बीच से दूर खेत में फैंक कर पेड की डाल पर चढ़ जाएगा , उसे ताज दिखाया जाएगा । इस खेल में दाम देने वाला जब तक डंडा लेकर आता बाकी सदस्य शीघ्रता से पेड पर चढ़ जाते । डंडे को एक गोला खींच कर उसके बीच में रखकर इंतजार किया जाता , ऊपर से कूदकर जो डंडा पकडेगा उसे दाम देने वाला पकड़ लेगा । यही क्रम हर खेलने वाले पर चलता रहता ।

शहतूत का पेड ऐसे पूर्वज के सामान था जिसकी हर डाली ऐसी प्रतीत होती मानो कोई बच्चों को सभालने के लिए बाँहें फैलाये खडा हो । मीठे रस भरे शहतूत का स्वाद इतनी मादकता लिए था कि ऊपर चढ़ने के बाद खेल का तो ध्यान ही नही रहता और हम शहतूत तोड़कर खाते रहते । अचानक डंडे का घेरा खली देख हम दो लोग एक साथ पेड से कूद गए , मेरे पैर में मोच आ गई । आह उह का सिलसिला शुरू हो गया । घर से चार पञ्च किलोमीटर दूर हम लोग घबरा गए , चुपचाप स्वाफी से पैर को बाँध दिया और पप्पू की पीठ पर लाद कर घर लाया गया ।

सब परेशान थे अब क्या होगा ? खूब मार पड़ेगी , लेकिन तभी राम खिलाड़ी मालिश करने वाला आता दिखाई दे गया , बाबा जरा देखना तो नाली में पैर मुड गया है , बाबा ने देखते ही दौड़ लगा दी , अरे !! बिटिया क्या हुआ ? सब ठीक हो जाएगा , चिंता न करो , बातें बनते हुए ही उन्होंने मेरा पैर ठीक कर दिया बस एक जोर का झटका लगा था , मुझे राम खिलाड़ी बाबा के अनछुए स्पर्श की छुअन आज भी याद है । क्या जादू था उन हाथों में , मेरी पीड़ा एक पल में छू मंतर हो गई । हम सब विजय के साथ मुस्करा रहे थे । क्योंकि घर में किसी को नही पता चला कि हम क्या खुरापात करके आ रहे हैं । जल्दी से फ्रॉक में सेर भर अनाज भरकर बाबा को दे दिया , अरे बिटिया रहने दे , बाबूजी ने तो खेत दिया है , रोटी उन्ही की दी खा रहे हैं , खुश रहो और हजारों आशीर्वाद देते हुए आंखों से ओझल हो गए ।

शहतूत का पेड न होता तो हम कभी उसकी फुनगी पर न चढ़ते , ताज की चमक न देख पते , मीठे शहतूत को दिल में न बसा पाते , कितनी बार चार रुपये तक कम लिए ताज दिखने के बहने से । हम सब झट से पेड पर चढ़ जाते और उतर जाते , जुटे हुए खेत में कूदते तो ऐसा लगता मानो हम गद्दे पर कूद रहे हैं , भीनी खुशबू आज भी चारो तरफ़ फ़ैल जाती है , मेरी स्मृतियों में शहतूत का पेड आज भी खड़ा है । प्यार का संगमरमरी महल दिलों में सजाने के लिए ।

मानवीय रिश्तों की तरह ये विरत प्रकृति भी हम सबसे रिश्ता जोड़ती है , शहतूत का पेड एक मीठे फलदार वृक्ष के अलावा एक दोस्त भी बन गया था । वो आज भी हमारा मित्र है ।

रेनू ....



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