पुरबिनी दादी
पुराने खंडहर जैसे बने दुमंजिले मकान में पुरबिनी दादी अपने सैनिक रहे पति के साथ रहती थी । धीरे-धीरे दोनों जीवन की उस दहलीज पर खडे थे जहाँ कमर झुक जाती है , बाल पक जाते हैं , चेहरा झुर्रियों से ढक जाता है , शरीर दिन -पर दिन शिथिल पड़ता जाता है , एक ऐसे सहारे की आवश्यकता पड़ती है जो पत्नी पति को दे सकती है और पति अपनी पत्नी को । उस मोड़ से जीवन की विदाई निकट मानी जाती है ।
मैं , अक्सर अपने पिछवाडे वाली खिड़की से उन दोनों की बातचीत सुना करती थी , कभी -कभी उनका लडाई -झगडा इतना बढ़ जाता था कि दादी चुपचाप ऊपर वाले कोठे पर चढ़ जाती और नीचे नही उतरती । बाबा नीचे से चिल्लाते , बुढिया नीचे आजा , मैं ऊपर नही चढ़ सकता , तुझे मनाऊं कैसे , आजा मेरा हुक्का भर दे और तब तक बुलाते रहते जब तक रोते -रोते लाल आँखें किए दादी नीचे नही आ जाती ।
हर बार की बारिश में उनके मकान का एक हिस्सा ढह जाता ठीक वैसे ही जैसे कि उनके जीवन का अन्तिम समय और पास आ गया हो । मुझसे छोटी बहन चित्रकला में पारंगत थी , हम उससे कहते इनके घर का स्कैच बना ले और लम्बी दाढ़ी वाले स्मार्ट बाबाका भी । लेकिन खिड़की से सरे काम करना मुश्किल थे । एक रोज तेज बारिश आंधी में उनके घर का आगे का हिस्सा भी ढह गया । दौनों घर के कोठे में सो रहे थे । रात भर बैचेनी से निकली , सुबह होते ही दौड़कर गई जाकर देखा दोनों ठीक से तो हैं ।
पुराने घर का पुराना रास्ता तो ईश्वर कि कृपा से बंद हो गया था । अब एक ऊँची -नीची पगडण्डी सी बन गई थी गिरी दीवार और आँगन के बीच । बाबा लाठी का सहारा लेकर उसी रस्ते से आया जाया करते । माँ, कहती मुझे तरस आता है , ये कहीं गिर गए तो कौन सभालेगा ? लेकिन वो भी क्या करे ,कभी तो , घर से बाहर निकलने का मन करेगा ही । उनका हाल-चाल जानने का लिए खिड़की बोनी पड़ रही थी । एक दिन तेज बारिश के कारण हमारी दीवार भी गिर गई , हम सभी बेहद खुश हुए , घर के बुजुर्ग चिंतित थे क्योंकि चोरों के लिए रास्ता खुल गया था । हम लोग माँ के पीछे पड़ गए थे कि पीछे की दीवार में एक दरवाजा निकलवा दें। ऐसा नही था कि दादी को संतान नही थी , दो बेटी एक बेटा था । एक बेटी राजिस्थान के किसी गाँव में रहती थी कभी -कभी आकर माँ के हाल जन लेती थी , दूसरी बेटी पास ही थी लेकिन कम आना होता था । बेटा सरकारी अस्पताल में स्टोरकीपर था , सरकारी आवास का सुख भोग रहा था , उसे कभी समय नही मिलता था कि माँ बाप को देख सके । वृद्धावस्था में भी दादी इतनी खूबसूरत थीं कि अपनी जवानी के समय तो पूरी जापानी गुडिया जैसी दिखती होंगी । हम अक्सर उनसे बातें किया करते थे , एक दिन बुआ ने बताया कि दादी से बाबा ने लव मैरिज की है , जब बाबा सेना में थे तब पहाडी इलाके में जाना होता था , उस समय अंग्रेजों का राज था , महीनों तक एक ही जगह पर रहना पड़ता था , बाबा की पहली पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी , साल भर बाद बाबा घर वापस आए तब उनके साथ एक सुंदर सी दुल्हिन थी , गाँव वाले उन्हें देखने के लिए दौड़ पड़ते थे । पडौस वाली महिलाएं उनका गाँव , घर , माता पिता सब पूछती थीं लेकिन दादी कभी भी नही बताती थी कि वे कहाँ से आईं हैं । हमारे पापा भी चाहते थे कि पीछे दरवाजा बन जाए , हम सभी को उनकी चिंता रहती थी , और एक दिन दरवाजे के साथ ही दीवार बन गई । हमारी चहल कदमी बाबा -दादी के पास आसन हो गई । उनकी जिंदगी के खूबसूरत पलों को मैं जानना चाहती थी । बाबा अपने मैडल भी दिखाते थे , उन्होंने दो लडियां भी लादिन थीं । बाबा हथियारों की साफ़ -सफाई करते थे । उनके पास बैठने पर समय पंख लगाकर उड़ जाता था । दादी धार्मिक संस्कार वाली महिला थीं । रामायण , महाभारत के किस्से उन्हें कंठस्थ थे । हर दिन दोपहर में माँ के पास बैठकर कहानियाँ सुनाया करतीं थीं । पूरब की भाषा बोलतीं थीं , माँ उनकी हर बात समझतीं थीं क्योंकि माँ कानपूर की थीं । तीस सालों में भी दादी ने ब्रज भाषा को नही अपनाया , हम लोग उन्हें परेशां करते थे कि दादी का कत्तल बानी { क्या कर रही हो } वे धीरे से मुस्करा जातीं थीं । जब उनकी तबियत ख़राब होती , माँ के पास आकर दवा ले जातीं थीं । बाबा अक्सर दादी से पैसों के पीछे लड़ा करते थे , पैशन से ही उनका खर्चा निकलता था । जिसमें बाबा के हुक्के का खर्च , दादी की बीडी का खर्च भी शामिल था । पूरा सामान दादी कंट्रोल की दुकान से लाती थी , कभी जब बाबा उनसे नाराज होते तब सैनिक जैसी गर्मी दिखाकर दादी को मार दिया करते थे , बेचारी दादी , जोर से चीखना शुरू कर देती , हम लोग दौड़ कर जाते और दादी को बचाकर ले आते , गुस्से में दादी घर नही जाती , बाबा को गाली देती , उनके मरने की कामना करती , अपने आने को कोसती , वो कौन सा बुरा समय था जब इस बुड्ढे के साथ आ गई । लेकिन दूसरे ही पल घर की तरफ़ मुड जातीं । काम करने लग जाती । इस बार ठण्ड जाने कैसी आई , बाबा बीमार हो गए , होते भी क्योनाहीं दो मंजिले घर की जगह अब एक टूटी -फूटी कोठरी ही बची थी । सहारे के लिए कर्मठ बुढिया थी जिसने प्यार की परिभाषा को सही अर्थ दिया था । अपना सब कुछ भूल गई थी , एक पुरानी रजाई कब तक , बूढी हड्डियों को गर्मी दे पति । दादी दवा लेन की बात करती तो बाबा अपना बक्सा नही खोलने देते , कोई बेईमानी कर लेगा , जाने क्या उनके दिमाग में घूमता था । दादी दुखियारी गाय सी इधर से उधर रंभाती फीती थी किसी तरह बाबा ठीक हो जाय । बेटे को ख़बर कर दी गई , बेटियाँ आकर बाप को अन्तिम विदाई कर गईं । बेटा नही आया और एक दिन बाबा चिरनिद्रा में चले गए । कुछा समय बाद उनका बक्सा खोलकर देखा गया , उसमें कुछा सरकारी कागज , दो तमगे , एक सर्टिफिकेट , एक बीडी का बण्डल , थोडी सी हुक्के की तम्बाकू यही उनकी जमा पूँजी थी । दादी अब निरी अकेली रह गई , उन्हें लगता बाबा ही तो थे जिनके कारन वे यहाँ थीं । लेकिन धीरे -धीरे कुछ सामान्य हो गईं । पेंशन के कागज दादी के नाम से बनते ही नाती पन्तियों ने आकर दादी को घेर लिया । बेटा भी घर आ गया कियोंकि अब रिटायर हो चुका था । घर भी बनवा लिया गया , दादी बड़े मजे से जीवन गुजार रही थीं । उम्र तो बीत ही रही थी , इस बार की बारिश में दादी बीमार पड़ गईं । कुछ दिनों तक माँ के पास आकर दवा ली गई , अब बिस्तर में जा गिरी दादी को घर वालों ने भी नकार दिया , माँ उनसे मिलने चली गईं तब , मेरे लिए जाने कितनी दुआएं उनके दिल से निकलीं , माँ से जाने क्या -क्या रामायण , महाभारत की कथा सी बोलती रहीं । सुबह माँ को पता चला दादी नहीं रहीं । एक ऐसा खालीपन हम सबमें समां गया कि हमारा पीछे का दरवाजा भी बेकार हो गया , माँ ने बड़ा सा ताला लगा दिया । बढ़ई परिवार में रहने वाली दादी से कैसा अटूट रिश्ता था जो आज चिरस्मृति में बदल गया है । मानवीय रिश्तों का खोखलापन , संवेदनशून्यता और अपने रिश्तों पर प्रश्नचिह्न लगाती पुरबिनी दादी ऐसे रिश्तों के बीच अपनी बानी रहीं जहाँ उनका कोई अपना न था । उनके लोग लालची बन गए । परायों के बीच अमर हो गईं पुरबिनी दादी । रेनू .......
पुराने खंडहर जैसे बने दुमंजिले मकान में पुरबिनी दादी अपने सैनिक रहे पति के साथ रहती थी । धीरे-धीरे दोनों जीवन की उस दहलीज पर खडे थे जहाँ कमर झुक जाती है , बाल पक जाते हैं , चेहरा झुर्रियों से ढक जाता है , शरीर दिन -पर दिन शिथिल पड़ता जाता है , एक ऐसे सहारे की आवश्यकता पड़ती है जो पत्नी पति को दे सकती है और पति अपनी पत्नी को । उस मोड़ से जीवन की विदाई निकट मानी जाती है ।
मैं , अक्सर अपने पिछवाडे वाली खिड़की से उन दोनों की बातचीत सुना करती थी , कभी -कभी उनका लडाई -झगडा इतना बढ़ जाता था कि दादी चुपचाप ऊपर वाले कोठे पर चढ़ जाती और नीचे नही उतरती । बाबा नीचे से चिल्लाते , बुढिया नीचे आजा , मैं ऊपर नही चढ़ सकता , तुझे मनाऊं कैसे , आजा मेरा हुक्का भर दे और तब तक बुलाते रहते जब तक रोते -रोते लाल आँखें किए दादी नीचे नही आ जाती ।
हर बार की बारिश में उनके मकान का एक हिस्सा ढह जाता ठीक वैसे ही जैसे कि उनके जीवन का अन्तिम समय और पास आ गया हो । मुझसे छोटी बहन चित्रकला में पारंगत थी , हम उससे कहते इनके घर का स्कैच बना ले और लम्बी दाढ़ी वाले स्मार्ट बाबाका भी । लेकिन खिड़की से सरे काम करना मुश्किल थे । एक रोज तेज बारिश आंधी में उनके घर का आगे का हिस्सा भी ढह गया । दौनों घर के कोठे में सो रहे थे । रात भर बैचेनी से निकली , सुबह होते ही दौड़कर गई जाकर देखा दोनों ठीक से तो हैं ।
पुराने घर का पुराना रास्ता तो ईश्वर कि कृपा से बंद हो गया था । अब एक ऊँची -नीची पगडण्डी सी बन गई थी गिरी दीवार और आँगन के बीच । बाबा लाठी का सहारा लेकर उसी रस्ते से आया जाया करते । माँ, कहती मुझे तरस आता है , ये कहीं गिर गए तो कौन सभालेगा ? लेकिन वो भी क्या करे ,कभी तो , घर से बाहर निकलने का मन करेगा ही । उनका हाल-चाल जानने का लिए खिड़की बोनी पड़ रही थी । एक दिन तेज बारिश के कारण हमारी दीवार भी गिर गई , हम सभी बेहद खुश हुए , घर के बुजुर्ग चिंतित थे क्योंकि चोरों के लिए रास्ता खुल गया था । हम लोग माँ के पीछे पड़ गए थे कि पीछे की दीवार में एक दरवाजा निकलवा दें। ऐसा नही था कि दादी को संतान नही थी , दो बेटी एक बेटा था । एक बेटी राजिस्थान के किसी गाँव में रहती थी कभी -कभी आकर माँ के हाल जन लेती थी , दूसरी बेटी पास ही थी लेकिन कम आना होता था । बेटा सरकारी अस्पताल में स्टोरकीपर था , सरकारी आवास का सुख भोग रहा था , उसे कभी समय नही मिलता था कि माँ बाप को देख सके । वृद्धावस्था में भी दादी इतनी खूबसूरत थीं कि अपनी जवानी के समय तो पूरी जापानी गुडिया जैसी दिखती होंगी । हम अक्सर उनसे बातें किया करते थे , एक दिन बुआ ने बताया कि दादी से बाबा ने लव मैरिज की है , जब बाबा सेना में थे तब पहाडी इलाके में जाना होता था , उस समय अंग्रेजों का राज था , महीनों तक एक ही जगह पर रहना पड़ता था , बाबा की पहली पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी , साल भर बाद बाबा घर वापस आए तब उनके साथ एक सुंदर सी दुल्हिन थी , गाँव वाले उन्हें देखने के लिए दौड़ पड़ते थे । पडौस वाली महिलाएं उनका गाँव , घर , माता पिता सब पूछती थीं लेकिन दादी कभी भी नही बताती थी कि वे कहाँ से आईं हैं । हमारे पापा भी चाहते थे कि पीछे दरवाजा बन जाए , हम सभी को उनकी चिंता रहती थी , और एक दिन दरवाजे के साथ ही दीवार बन गई । हमारी चहल कदमी बाबा -दादी के पास आसन हो गई । उनकी जिंदगी के खूबसूरत पलों को मैं जानना चाहती थी । बाबा अपने मैडल भी दिखाते थे , उन्होंने दो लडियां भी लादिन थीं । बाबा हथियारों की साफ़ -सफाई करते थे । उनके पास बैठने पर समय पंख लगाकर उड़ जाता था । दादी धार्मिक संस्कार वाली महिला थीं । रामायण , महाभारत के किस्से उन्हें कंठस्थ थे । हर दिन दोपहर में माँ के पास बैठकर कहानियाँ सुनाया करतीं थीं । पूरब की भाषा बोलतीं थीं , माँ उनकी हर बात समझतीं थीं क्योंकि माँ कानपूर की थीं । तीस सालों में भी दादी ने ब्रज भाषा को नही अपनाया , हम लोग उन्हें परेशां करते थे कि दादी का कत्तल बानी { क्या कर रही हो } वे धीरे से मुस्करा जातीं थीं । जब उनकी तबियत ख़राब होती , माँ के पास आकर दवा ले जातीं थीं । बाबा अक्सर दादी से पैसों के पीछे लड़ा करते थे , पैशन से ही उनका खर्चा निकलता था । जिसमें बाबा के हुक्के का खर्च , दादी की बीडी का खर्च भी शामिल था । पूरा सामान दादी कंट्रोल की दुकान से लाती थी , कभी जब बाबा उनसे नाराज होते तब सैनिक जैसी गर्मी दिखाकर दादी को मार दिया करते थे , बेचारी दादी , जोर से चीखना शुरू कर देती , हम लोग दौड़ कर जाते और दादी को बचाकर ले आते , गुस्से में दादी घर नही जाती , बाबा को गाली देती , उनके मरने की कामना करती , अपने आने को कोसती , वो कौन सा बुरा समय था जब इस बुड्ढे के साथ आ गई । लेकिन दूसरे ही पल घर की तरफ़ मुड जातीं । काम करने लग जाती । इस बार ठण्ड जाने कैसी आई , बाबा बीमार हो गए , होते भी क्योनाहीं दो मंजिले घर की जगह अब एक टूटी -फूटी कोठरी ही बची थी । सहारे के लिए कर्मठ बुढिया थी जिसने प्यार की परिभाषा को सही अर्थ दिया था । अपना सब कुछ भूल गई थी , एक पुरानी रजाई कब तक , बूढी हड्डियों को गर्मी दे पति । दादी दवा लेन की बात करती तो बाबा अपना बक्सा नही खोलने देते , कोई बेईमानी कर लेगा , जाने क्या उनके दिमाग में घूमता था । दादी दुखियारी गाय सी इधर से उधर रंभाती फीती थी किसी तरह बाबा ठीक हो जाय । बेटे को ख़बर कर दी गई , बेटियाँ आकर बाप को अन्तिम विदाई कर गईं । बेटा नही आया और एक दिन बाबा चिरनिद्रा में चले गए । कुछा समय बाद उनका बक्सा खोलकर देखा गया , उसमें कुछा सरकारी कागज , दो तमगे , एक सर्टिफिकेट , एक बीडी का बण्डल , थोडी सी हुक्के की तम्बाकू यही उनकी जमा पूँजी थी । दादी अब निरी अकेली रह गई , उन्हें लगता बाबा ही तो थे जिनके कारन वे यहाँ थीं । लेकिन धीरे -धीरे कुछ सामान्य हो गईं । पेंशन के कागज दादी के नाम से बनते ही नाती पन्तियों ने आकर दादी को घेर लिया । बेटा भी घर आ गया कियोंकि अब रिटायर हो चुका था । घर भी बनवा लिया गया , दादी बड़े मजे से जीवन गुजार रही थीं । उम्र तो बीत ही रही थी , इस बार की बारिश में दादी बीमार पड़ गईं । कुछ दिनों तक माँ के पास आकर दवा ली गई , अब बिस्तर में जा गिरी दादी को घर वालों ने भी नकार दिया , माँ उनसे मिलने चली गईं तब , मेरे लिए जाने कितनी दुआएं उनके दिल से निकलीं , माँ से जाने क्या -क्या रामायण , महाभारत की कथा सी बोलती रहीं । सुबह माँ को पता चला दादी नहीं रहीं । एक ऐसा खालीपन हम सबमें समां गया कि हमारा पीछे का दरवाजा भी बेकार हो गया , माँ ने बड़ा सा ताला लगा दिया । बढ़ई परिवार में रहने वाली दादी से कैसा अटूट रिश्ता था जो आज चिरस्मृति में बदल गया है । मानवीय रिश्तों का खोखलापन , संवेदनशून्यता और अपने रिश्तों पर प्रश्नचिह्न लगाती पुरबिनी दादी ऐसे रिश्तों के बीच अपनी बानी रहीं जहाँ उनका कोई अपना न था । उनके लोग लालची बन गए । परायों के बीच अमर हो गईं पुरबिनी दादी । रेनू .......
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