युगों से स्त्री ऐसे चोराहे पर खड़ी है जहाँ से , कौन सा रास्ता उसके वजूद के लिए मुड़ता है कहना मुश्किल है ।अपनी अशिक्षा मिटने के लिए बी .ऐ .पास किया कोई कह नही सकता पढ़ी - लिखी नही थी । अज्ञान को मिटाने के लिए पूजा -पाठ , धर्म -कर्म न जाने कितने व्रत -उपवास किए , नौ दिन तक निर्जला माता के सामने प्रायश्चित भी किया , पर कोई समझ नही पाया कि मैं जानती हूँ कि ईश्वर एक है , हम सब उसकी संतान हैं , हमारे कर्मों पर ही संसार की दंड प्रक्रिया निर्भर है और कर्म फल के अनुसार ही जन्म भोग रही हूँ , मुझे पक्का विश्वास है शायद इसीलिए नारी जन्म लिया , कागजी धनवान परिवार मैं , तीसरी बार विवाह कर संतान जोड़ने वाले पिता की पांचवी बेटी के रूप मैं जन्म पा गई । जाने कितने जन्मों की सजा एक साथ पा रही हूँ ।ऐसा भी नही था कि मुझे बोलने नही दिया गया , या लिंग भेद भाव की शिकार हुई लेकिन जाने क्यों , हमारी परम्परा , संस्कृति बेटी को दोयम दर्जे की जिंदगी जीने को मजबूर करती है । सोचती थी शादी के बाद पति का घर मेरा अस्तित्व स्वीकार करेगा , मुझे मेरा होने का अहसास कराएगा , नन्हे बच्चे मां कहकर बुलाएँगे तब सब भूल कर आसमान मैं उड़ जाउंगी , पति हर पल मेरी साँस के साथ जीयेगा , मेरी साँस के साथ मिट जाएगा , लोग मेरी खुश हाल जिन्दगी से ईर्ष्या करेंगे , तब मैं उन्हें बताउंगी देखो इस तरह जीया जाता है । कितना खुश होती थी सोचकर । मेरी खुशियाँ सिर्फ़ सपनों तक ही सीमित रह गई , रात ढलते ही जिन्दगी की भाग दौड़ मुझे अधमरा कर देती थी । मेरे विवाह का जाने कैसा योग था , एक गरीब पंडित जो शास्त्रों का तुच्छ ज्ञाता था , संस्कृत मध्यमा तक शिक्षित , कथा -प्रवचनों , देवी -देवताओं की आराधना , मन्दिर , देवालय , शिवालय की साफ़ सफाई , व्यवस्था प्रबंध कर ही घर का खर्च निकाल पता था । ऐसा भी नही था कि पिता अच्छा वर नही देख सकते थे या विवाह का खर्च वहां नही कर सकते थे , जाने क्यों , जब विवाह योग बना तब तक मेरी उम्र यौवन पार कर गई थी , तो जो सामने पीड़ित सा मिल गया , बेटी सँभालने तैयार हो गया उसी को बेटी ब्याह दी गई । पंडित ने सोचा होगा , धनवान परिवार है ,जीवन नैया तो दान -दक्षिणा से ही पार लग जायेगी लेकिन हर सोचा हुआ नही होता । पंडित के गाँव चली गई , रोज दक्षिणा से पेट भरने वाला परिवार भाई -भाभी द्वारा निर्वासित कर दिया गया । बेल पर छूटे कैदी सी , सुबह की किरण के साथ काम करना शुरू करती रात को कोठरी मैं ओंधे मुह गिर पड़ती , यही दिनचर्या बन गई थी । किसी तरह पति को समझा पाई और शहर आ गई । शहर की रौशनी अधिक दिनों तक मास्टरी के काम मैं उजाला नही फैला सकी । फ़िर पंडिताई शुरू की गई , परन्तु वृन्दावन के पंडों ने उसकी दाल नही गलने दी । पिता के घर शरण ली , उनके दरवार मैं गुहार लगा दी कि आपने वडा किया था नौकरी और घर देने का , तो अब हमें जरूरत है दे दीजिये । हर पिता की तरह वह तैयार थे पर , सौतेले भाई -बहिन को मुझसे जायदा दौलत का मोह था । मुझे धूल के हवाले कर भाई सड़कों पर मुझे घसीटता रहा , मान -अपमान का सरे आम बाजार भाव होता रहा , लोग तमाशा देखते रहे , बड़े घरों के लोग कैसा तांडव करते हैं यह सबने दिखा दिया । सारे रिश्ते भूल कर मैं दर -दर भटकती रही । ऐसी जगह तलाशती रही जहाँ काम मिले , घर मिले , रोटी मिले । जिन भाई -बहिनों के साथ मैंने चालीस बरस तक एक थाली मैं खाना खाया , एक बिस्तर पर कुत्ते के बच्चों की तरह सो कर गुजारे वही आज मुझे बेदखल कर किनारा कर गए । चाहती तो पैतृक संपत्ति पर अधिकार जाता सकती थी पर कानून के लिए भी तो धन चाहिए । मैं , माता -पिता से रोटी का हक़ भी नही पा सकी । बचपन मैं बड़ी शरारती थी । कभी पिता से कुछ नही माँगा , विवाह मैं देर हुई तब भी नहीं कहा कि आप , कुछ करते क्यो नहीं , रोटी कपड़े के अलावा कोई जरूरत ही नही थी , बस कभी -कभी किताबें पड़ती थी ,माँ जब गिर गई थीं , तब दिन रत उनके बिस्तर से लगी रहती थी । आज किन गलियों मैं भटक रही हूँ किसी को परवाह नहीं । कई बरसों तक पंडित भी प्रयास करता रहा शायद सब ठीक हो जाएगा , लेकिन उसने भी मान लिया कि दुनिया के मेले मैं हम दोनो को बंजारों कि तरह भटकना पड़ेगा । व्रत -उपवास , निराहार और सूखी रोटी खाकर दिन कटते गए । जाने कितनी रातें फांका मैं कट गए , कभी लगता मुझे कोई ढूँढ ले और कह दे कि घर चलो ।माँ , मुझे आवाज लगायेगी , पर किसी ने कभी नही पुकारा । पता चला , पिता नही रहे , तब बेशर्मी का परदा चढाये घर गई , ऐसा लगा जैसे अनजानों के बीच आई हूँ , किसी ने बात नही की , किसी ने नही पूछा कहाँ रह रही हूँ या क्या खा रही हूँ । सभी को खुली , खाली आंखों से देख रही थी , कहीं एक बूँद प्यार नही दिखा , पिता से बेटी होने का हक़ जो मांग बैठी थी । अपने खून के लिए खून के आंसू बहाकर खून का पानी बनते देख , मैं , पूरी तरह रीती होकर वापस आ गई । सपनों मैं जीवन की रंगीनियाँ तलाशने वाली मैं , अब सपनों से भी डरने लगी । पंडित अपनी भडांस मेरे सूखे , टूटे जिस्म पर निकलता था , कभी घर से निकल देता , फी वापस ले आता , मैं , वृन्दावन की गलियों मैं मुंह ढक कर भीख मांगने लगी । कभी उन बदनसीब औरतों पर रहम खाती थी कि उनके घर वाले कैसे हैं जो उन्हें भटकने के लिए छोड़ देते हैं । अब मैं भी , समझ गई हूँ , बस जिस्म फरोशी नही कर सकती , क्योंकि संस्कार आत्म हत्या की इजाजत तो देते हैं पर कुकर्म की नही । भीख मांग सकती हूँ पर आत्म हत्या भी नही कर सकती क्योंकि सुना है की आत्मघात करने वालों की मुक्ति नही होती , इस जीवन का कष्ट भोग लेती हूँ शायद ईश्वर सहन शीलता का फल भी देगा ही । शरीर भी अब काम नही करता , खांसी बंद नही होती , बुखार भी नही उतरता , फ़िर भी पंडित के साथ लगी रहती हूँ । बचपन की एक सहेली से बात हो जाती है , चार दिन से बिस्तर से उठ नही पाई , डॉक्टर ने पंडित को बता दिया है की पंडिताइन को आखिरी स्टेज की टी .बी है । कभी भी विदा हो सकती है । पंडित घबरा गया है , घर पर ही रहता है । पैसा नही तो दवा नही , पंडित इधर -उधर से मांग लेता है । पचास बरस मैं ही सौ बरस जी ली । पंडित !! अच्छा हुआ बच्चा नही हुआ , वरना तुम बंध जाते । मुझे फोन करना है , ले चलो । पंडित मुझे ढोकर फोन बूथ तक ले आया , कागज की चिट से पहले एक भाई से बात की फ़िर सहेली को फोन लगा लिया , मीरा ! मैं गिलहरी बोल रही हूँ , जाने क्या -क्या बोलती गई , भूखी शेरनी जब शिकार पर जाती है पूरी उर्जा लगा देती है मैं भी बूँद -बूँद निचुड़ कर बात करती जा रही थी । पंडित मुझे सहारा देकर घर ले आया , जीवन भर की खाली होकर बिस्तर पर लुडक गई । पंडित पगलाया सा आधी रात को पड़ोसियों की सांकल से जूझ रहा था । कभी ग्लूकोस मांगता , कभी गंगाजल । मैं उसका हाथ पकड़कर इस दुनिया से चले जाना चाहती थी , ईश्वर से बोल रही थी मुझे कभी जनम नही देना , बेटी तो कभी नही । शिवरात्रि की घनघोर अँधेरी रात मैं इस दुनिया से मैं आजाद हो गई । बेडियों मैं जकड़ी हुई थी , अब आजाद हूँ। रेनू शर्मा ...
सदियों से कहानियां सुनाई जाती रही हैं , गाथाओं का तिलिस्म कभी ख़त्म नहीं होगा , खूबसूरत पलों को कागज पर चित्रित करने का काम लेखक करता है , तभी मनोरंजक कहानियां , किस्से , कथा हम पढ़ पाते हैं . शब्द और भावार्थ के साथ न उलझते हुए , अत्यंत रोचक कहानियां कथा -गाथा में प्रस्तुत हैं .
Saturday, January 3, 2009
मैं आजाद हूँ
युगों से स्त्री ऐसे चोराहे पर खड़ी है जहाँ से , कौन सा रास्ता उसके वजूद के लिए मुड़ता है कहना मुश्किल है ।अपनी अशिक्षा मिटने के लिए बी .ऐ .पास किया कोई कह नही सकता पढ़ी - लिखी नही थी । अज्ञान को मिटाने के लिए पूजा -पाठ , धर्म -कर्म न जाने कितने व्रत -उपवास किए , नौ दिन तक निर्जला माता के सामने प्रायश्चित भी किया , पर कोई समझ नही पाया कि मैं जानती हूँ कि ईश्वर एक है , हम सब उसकी संतान हैं , हमारे कर्मों पर ही संसार की दंड प्रक्रिया निर्भर है और कर्म फल के अनुसार ही जन्म भोग रही हूँ , मुझे पक्का विश्वास है शायद इसीलिए नारी जन्म लिया , कागजी धनवान परिवार मैं , तीसरी बार विवाह कर संतान जोड़ने वाले पिता की पांचवी बेटी के रूप मैं जन्म पा गई । जाने कितने जन्मों की सजा एक साथ पा रही हूँ ।ऐसा भी नही था कि मुझे बोलने नही दिया गया , या लिंग भेद भाव की शिकार हुई लेकिन जाने क्यों , हमारी परम्परा , संस्कृति बेटी को दोयम दर्जे की जिंदगी जीने को मजबूर करती है । सोचती थी शादी के बाद पति का घर मेरा अस्तित्व स्वीकार करेगा , मुझे मेरा होने का अहसास कराएगा , नन्हे बच्चे मां कहकर बुलाएँगे तब सब भूल कर आसमान मैं उड़ जाउंगी , पति हर पल मेरी साँस के साथ जीयेगा , मेरी साँस के साथ मिट जाएगा , लोग मेरी खुश हाल जिन्दगी से ईर्ष्या करेंगे , तब मैं उन्हें बताउंगी देखो इस तरह जीया जाता है । कितना खुश होती थी सोचकर । मेरी खुशियाँ सिर्फ़ सपनों तक ही सीमित रह गई , रात ढलते ही जिन्दगी की भाग दौड़ मुझे अधमरा कर देती थी । मेरे विवाह का जाने कैसा योग था , एक गरीब पंडित जो शास्त्रों का तुच्छ ज्ञाता था , संस्कृत मध्यमा तक शिक्षित , कथा -प्रवचनों , देवी -देवताओं की आराधना , मन्दिर , देवालय , शिवालय की साफ़ सफाई , व्यवस्था प्रबंध कर ही घर का खर्च निकाल पता था । ऐसा भी नही था कि पिता अच्छा वर नही देख सकते थे या विवाह का खर्च वहां नही कर सकते थे , जाने क्यों , जब विवाह योग बना तब तक मेरी उम्र यौवन पार कर गई थी , तो जो सामने पीड़ित सा मिल गया , बेटी सँभालने तैयार हो गया उसी को बेटी ब्याह दी गई । पंडित ने सोचा होगा , धनवान परिवार है ,जीवन नैया तो दान -दक्षिणा से ही पार लग जायेगी लेकिन हर सोचा हुआ नही होता । पंडित के गाँव चली गई , रोज दक्षिणा से पेट भरने वाला परिवार भाई -भाभी द्वारा निर्वासित कर दिया गया । बेल पर छूटे कैदी सी , सुबह की किरण के साथ काम करना शुरू करती रात को कोठरी मैं ओंधे मुह गिर पड़ती , यही दिनचर्या बन गई थी । किसी तरह पति को समझा पाई और शहर आ गई । शहर की रौशनी अधिक दिनों तक मास्टरी के काम मैं उजाला नही फैला सकी । फ़िर पंडिताई शुरू की गई , परन्तु वृन्दावन के पंडों ने उसकी दाल नही गलने दी । पिता के घर शरण ली , उनके दरवार मैं गुहार लगा दी कि आपने वडा किया था नौकरी और घर देने का , तो अब हमें जरूरत है दे दीजिये । हर पिता की तरह वह तैयार थे पर , सौतेले भाई -बहिन को मुझसे जायदा दौलत का मोह था । मुझे धूल के हवाले कर भाई सड़कों पर मुझे घसीटता रहा , मान -अपमान का सरे आम बाजार भाव होता रहा , लोग तमाशा देखते रहे , बड़े घरों के लोग कैसा तांडव करते हैं यह सबने दिखा दिया । सारे रिश्ते भूल कर मैं दर -दर भटकती रही । ऐसी जगह तलाशती रही जहाँ काम मिले , घर मिले , रोटी मिले । जिन भाई -बहिनों के साथ मैंने चालीस बरस तक एक थाली मैं खाना खाया , एक बिस्तर पर कुत्ते के बच्चों की तरह सो कर गुजारे वही आज मुझे बेदखल कर किनारा कर गए । चाहती तो पैतृक संपत्ति पर अधिकार जाता सकती थी पर कानून के लिए भी तो धन चाहिए । मैं , माता -पिता से रोटी का हक़ भी नही पा सकी । बचपन मैं बड़ी शरारती थी । कभी पिता से कुछ नही माँगा , विवाह मैं देर हुई तब भी नहीं कहा कि आप , कुछ करते क्यो नहीं , रोटी कपड़े के अलावा कोई जरूरत ही नही थी , बस कभी -कभी किताबें पड़ती थी ,माँ जब गिर गई थीं , तब दिन रत उनके बिस्तर से लगी रहती थी । आज किन गलियों मैं भटक रही हूँ किसी को परवाह नहीं । कई बरसों तक पंडित भी प्रयास करता रहा शायद सब ठीक हो जाएगा , लेकिन उसने भी मान लिया कि दुनिया के मेले मैं हम दोनो को बंजारों कि तरह भटकना पड़ेगा । व्रत -उपवास , निराहार और सूखी रोटी खाकर दिन कटते गए । जाने कितनी रातें फांका मैं कट गए , कभी लगता मुझे कोई ढूँढ ले और कह दे कि घर चलो ।माँ , मुझे आवाज लगायेगी , पर किसी ने कभी नही पुकारा । पता चला , पिता नही रहे , तब बेशर्मी का परदा चढाये घर गई , ऐसा लगा जैसे अनजानों के बीच आई हूँ , किसी ने बात नही की , किसी ने नही पूछा कहाँ रह रही हूँ या क्या खा रही हूँ । सभी को खुली , खाली आंखों से देख रही थी , कहीं एक बूँद प्यार नही दिखा , पिता से बेटी होने का हक़ जो मांग बैठी थी । अपने खून के लिए खून के आंसू बहाकर खून का पानी बनते देख , मैं , पूरी तरह रीती होकर वापस आ गई । सपनों मैं जीवन की रंगीनियाँ तलाशने वाली मैं , अब सपनों से भी डरने लगी । पंडित अपनी भडांस मेरे सूखे , टूटे जिस्म पर निकलता था , कभी घर से निकल देता , फी वापस ले आता , मैं , वृन्दावन की गलियों मैं मुंह ढक कर भीख मांगने लगी । कभी उन बदनसीब औरतों पर रहम खाती थी कि उनके घर वाले कैसे हैं जो उन्हें भटकने के लिए छोड़ देते हैं । अब मैं भी , समझ गई हूँ , बस जिस्म फरोशी नही कर सकती , क्योंकि संस्कार आत्म हत्या की इजाजत तो देते हैं पर कुकर्म की नही । भीख मांग सकती हूँ पर आत्म हत्या भी नही कर सकती क्योंकि सुना है की आत्मघात करने वालों की मुक्ति नही होती , इस जीवन का कष्ट भोग लेती हूँ शायद ईश्वर सहन शीलता का फल भी देगा ही । शरीर भी अब काम नही करता , खांसी बंद नही होती , बुखार भी नही उतरता , फ़िर भी पंडित के साथ लगी रहती हूँ । बचपन की एक सहेली से बात हो जाती है , चार दिन से बिस्तर से उठ नही पाई , डॉक्टर ने पंडित को बता दिया है की पंडिताइन को आखिरी स्टेज की टी .बी है । कभी भी विदा हो सकती है । पंडित घबरा गया है , घर पर ही रहता है । पैसा नही तो दवा नही , पंडित इधर -उधर से मांग लेता है । पचास बरस मैं ही सौ बरस जी ली । पंडित !! अच्छा हुआ बच्चा नही हुआ , वरना तुम बंध जाते । मुझे फोन करना है , ले चलो । पंडित मुझे ढोकर फोन बूथ तक ले आया , कागज की चिट से पहले एक भाई से बात की फ़िर सहेली को फोन लगा लिया , मीरा ! मैं गिलहरी बोल रही हूँ , जाने क्या -क्या बोलती गई , भूखी शेरनी जब शिकार पर जाती है पूरी उर्जा लगा देती है मैं भी बूँद -बूँद निचुड़ कर बात करती जा रही थी । पंडित मुझे सहारा देकर घर ले आया , जीवन भर की खाली होकर बिस्तर पर लुडक गई । पंडित पगलाया सा आधी रात को पड़ोसियों की सांकल से जूझ रहा था । कभी ग्लूकोस मांगता , कभी गंगाजल । मैं उसका हाथ पकड़कर इस दुनिया से चले जाना चाहती थी , ईश्वर से बोल रही थी मुझे कभी जनम नही देना , बेटी तो कभी नही । शिवरात्रि की घनघोर अँधेरी रात मैं इस दुनिया से मैं आजाद हो गई । बेडियों मैं जकड़ी हुई थी , अब आजाद हूँ। रेनू शर्मा ...
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