आवारगी
काशी लड़कों के साथ गलियों में कभी कंचे खेलती थी ,कभी ढ़ेरी फोड़ खेलती उसके साथ भाई भी खेलता था। माँ ,कभी भाई को नहीं टोकती थी कि तू क्यों जाता है लेकिन काशी हमेशा डांट खाती थी। काशी का जबमन होता खेल में मस्त हो जाती। उसे पढ़ाई का महत्व् ही नहीं पता था। इतना जानती थी कि स्कूल जाने से अखबार पढ़ना और खत पढ़ना -लिखना सीख जाएगी। काशी का मन घर पर नहीं बल्कि बाड़े में जाकर दोस्तों के साथ खेलने में जादा लगता था। कभी दादी ,चाची ,कभी ताई के घर मस्ती करती रहती थी।
काशी को जो कोई भी बुलाने जाता ,वो भी खेलने लग जाता। माँ ,फिर तीसरे व्यक्ति को भेजती थी जाओ ,काशी को बुलाकर लाओ। माँ ,छड़ी लेकर दौड़ती थी ,काशी इधर -उधर भागती रहती। माँ ,हो गया न ,अब नहीं जाउंगी। दूसरे दिन फिर वही होता। काशी मानो अपने अस्तित्व को समझती ही नहीं थी। वापस आई ,खाना खाया और सो रही। उसे बचपन का अधिक कुछ याद नहीं। बारह बरस के बाद का सब याद है। माँ को एक तरीका सूझा -काशी को घर के काम करने का बोल दिया गया। तुम बर्तन साफ़ करोगी ,पानी भरकर रखोगी। झाड़ू भी लगानी होगी। अब ,काशी घर पर बध गई।
काशी जब बड़ी हुई तो ,पता चला पूरे खानदान में आठ -दस लड़कियां हैं। सभी मिलकर खेलती और पढ़ाई करती थीं। काशी माँ को दिखा रही थी माँ !! मेरे हाथ पर ये कड़ा सा हो गया है। हेण्डपम्प चलाने से हुआ होगा। ठीक हो जायेगा। काशी की आवारगी अब ,घर के भीतर शुरू है। जब ब्याह का समय आया तब भी काशी खेलते हुए रश्में पूरी कर रही थी। अभी उसकी बेटी अनुजा सोलह बरस की ही हुई है जब रात को पार्टी से लौटकर आती है तब ,काशी सोचती है माँ ,तो मुझे आवारा कहती थी ,अब ,ये अनुजा क्या कर रही है ?
अनुजा को देखकर काशी डर जाती है क्योंकि वो जमाना कुछ और था ,अभी हालात कुछ भिन्न हैं। काशी झूले पर बैठी कभी मुस्कराती और कभी आंसुओं से माँ को याद करती है। काशी को लगता है हमारे घर की हर खिड़की ,दरवाजा ,दीवार ,पेड़ बच्चों को पहचानते थे लेकिन अभी के बच्चे खेलते ही नहीं हैं। अनुजा फोन पर अधिक समय निकालती है। काशी इसी को आवारगी समझती है ,क्या पता आज का बचपन यही होगा ?
रेनू शर्मा
No comments:
Post a Comment