Thursday, December 15, 2011

माँ की चाबी


उत्तरांचल की वादियों में इस मौसम की पहली बर्फ गिरी है , तब लग रहा है कि शीत लहर क्या होती है ,ठण्ड से शरीर कांप रहा है , कम्बल के रोंये अहसास करते हैं जैसे किसी चौपाये के वजूद को ओड लिया हो .लम्बे -लम्बे दरख्त जो हरे दिखाई देते थे , वे अब सफ़ेद हो रहे हैं , दूर पहाड़ियों पर बर्फ की चादर फैलती चली जा रही है ,ऐसा लगता है जैसे शीत की  जडिया रात के सन्नाटे में सरे देवी -देवता यहाँ अवश्य चहल कदमी करने आते होंगे . तभी तो हवाएं दीवानी होकर सनसनाती हैं , नदिया , झरने कपकपाते हुए से बहते रहते हैं , पानी इतना शीतल है कि स्पर्श  करने से ही विद्ध्युत आवेग तन -मन को झंकृत कर दे , इन पर्वतों की विशालता को मापना कम से कम मेरा तो काम नहीं रहा , कभी उस पर्वत पर कभी उस पहाड़ पर दिव्य आकृतियाँ सी उभरती दिखाई देतीं हैं , यहाँ की प्रकृति निष्प्राण नहीं है , मुझे तो कण -कण से प्रणव ध्वनी उच्चारित सी प्रतीत होती है .
जब से इस घाटी के पर्यावरण विभाग में पर्यवेक्षक का पद संभाला है सरकारी आवास के पत्थर और खपरैल के बने कमरे में मेरी आत्मा घुटती सी लगती है , बार -बार जी चाहता है हिमालय पर्वत की वादियों में एक गुफा खोज लूं और अनुभव करूँ, कैसे हमारे ऋषि -मुनि घोर तपस्या कर परमतत्व को प्राप्त हुए , शायद तभी माँ ने मेरा नाम शिवानन्द रखा है , माँ ,से याद आया , माँ अगर साथ होती तो कितना अच्छा होता , खुले आकाश टेल लकड़ी जलाकर दाल -रोटी बनती और मैं , माँ को नित नै कहानियां सुनाता .
मैं पीपल के विशाल वृक्ष के नीचे चबूतरे पर कम्बल में शरीर को लपेटे गुनगुनी धुप का आनंद अपने ईष्ट देव के साथ ले रहा था ,तभी एक पैर से लंगड़ाता हुआ कलुआ वहां आ धमका , अरे !! आनंद राम जी !!  पूरी धूप आप ही बटोर लोगे या मेरे लिए भी छोड़ोगे ? आजा कालू !! यार , तुम्हारा नाम कालू किसने रखा ? बड़ा अजीब है जबकि तुम काले भी नहीं हो , अरे !! क्या बताऊँ स्वामी जी !! बचपन से ही बाबा बनने का शौक था , छोटा था तब गरीबी के कारण कपडे कभी तन न ढँक सके , तब नागा ही बना फिरता था , जब बड़ा  हुआ तो दादा का अंगोछा और पत्ते वाला घुटन्ना बस यही वस्त्र मेरी लाज रखा करते थे , एक दिन दोस्तों के साथ बम्बा नहाने चला गया , देर तक पानी में मस्ती चलती रही , कभी खेत से गाजर ,टमाटर बैगन , मटर तोड़ी और खाली जब कपडे पहनने की याद आई तब पता चला हमारे गाँव  का पहलवान , बजरंगवली का परम भक्त कैलाशी !! सबके कपडे उठा ले गया , अब क्या करते ? शाम होने का इंतजार किया और खेत पर जल रहे अलाव से सबने अपने शरीर पर राख लगा ली और घर की तरफ दौड़ लगा दी , माँ , दरवाजे पर खडी मिली ,डर गई जब तक उसे विश्वास नहीं हुआ कि मैं बाबा नहीं बना हूँ ,पूरी कहानी सुनकर मुझे कालूराम कहकर चिढाने लगी , तब से मेरा नाम कालू  ही पद गया , माँ , का दिया यही आशीर्वाद मेरे साथ आज भी है , उसके मरने के बाद मैं , इधर भाग निकला , अब देखो , पैर मेरा साथ नहीं दे रहा .
कोई बात नहीं कालू !! दो एक दिन लगेगा ठीक हो जायेगा , मोच ही तो आई है , जरा घासीराम को आने दे खिंचवा दूंगा , साब !! आज आप ऑफिस नहीं गए ? यहाँ , पीपल के नीचे क्यों कम्बल के साथ धूनी जमाई है ? क्या बताऊँ ?कल से माँ , की याद आ रही है , माँ के साथ ही पुराणी यादों में खोया था , मुझे भी बताओ न , माँ की बात , रुको जी , जरा चाय का इंतजाम कर लूं , अरे !! ओ , चीमा !! जरा दो चाय अदरक वाली बना ला , साब की चा- जरा कड़क समझे !! जी , अब , बोलो जी , आप का कम तो पहाड़ , पर्वत , नदी ,झरने , घास -फूंस को निहारने का है , कहाँ सूखा पड़ा है ,कहाँ बर्फ पड़ रहा है , हवा का रुख क्या है ? देखो कालू !! तुम मेरी नौकरी का उपहास मत बनाओ , नहीं जी !! पर्यावरण ही जीवन है , प्रकृति है तो हम हैं , ईश्वर है , साधू -संत हैं और ---बस अब , चुप तभी चीमा , चाय लेकर आ गया साब !! ये आपकी चा -- और ये आपकी चा ---अरे !! चीमा , आधा क्यों बोलता है ? हा कहाँ गया ? चीमा वहां से भाग निकला .
चाय की चुस्की के साथ शिवानन्द शुरू होते हैं , माँ , मेरे जीवन में चाय की प्याली सी शुरू होकर रात के एक गिलास दूध के बीच झूलती कर्मठ , भरपूर जीवन जीने वाली , साहसी और दैवीय महिला हैं , मुझे याद है , जब छोटा  था, हर जरूरत माँ के साये के पीछे दौड़ते -दौड़ते पूरी हो जाती थी , पिता का काम घर चलाना था , माँ का काम पूर्ण किफ़ायत के साथ घर चलाना ,सादगी , मरियादा और संस्कारों के बीच पिसती माँ ही हमारी तिजोरी थी , माँ , ही रसोई थी , माँ ही सजायाफ्ता कैदी को छुड़ाने के लिए वकील थी क्या नहीं थी माँ ,
माँ , के पास वर्षों पुराना एक बक्सा था जिसमें टला लगाकर रखती थी , मैं , जनता था उसमें क्या है , कुछ जरूरी कागज , सोने चांदी के थोड़े से जेवर , पुराना एक फोटो , बस यही तो खजाना था उनका , मेरे एक परम मित्र सपत्नीक आ पधारे , हम सब लोग उपहास ही कर रहे थे कि अचानक फोटो की याद आ गई , बक्से की चाबी मांगने का खेल शुरू हो गया , भाभी भी मेरा साथ देने लगीं , तरह -तरह के प्रलोभन माँ को दिए जाते रहे और चाबी पाने का प्रयास हम लोग करते रहे पर मजाल है माँ , ने चाबी होने की बात भी स्वीकार की हो .
भाभी , उनके छोटे ,दुबले शरीर पर आधुनिक लिवास देखकर मुस्करा रहीं थीं , एकटक उनके चेहरे को देख रहीं थीं , वे कभी सूजी हुईं आँखों को खुजलाने का प्रयास करती तो हंसाने पर और बंद हो जाती , माँ उस दिन  गुडिया सी दिख रहीं थीं , जब वे चाबी न देने के लिए बहाना बनातीं तो मधुर मुस्कान बिखेरता उनका चेहरा चाँद सा खिल जाता , कभी कहतीं अरे !! क्यों मेरे पीछे पड़े हो ? बक्से मैं कुछ भी नहीं है , जब भाभी फिर उन्हें कुरेदती तब बोलतीं लाली !! उसमें  कागज हैं बस , तो फिर माते !!  उसमें ताला क्यों लगा है ? हंसते हुए कहतीं ,चांदी के सिक्के भी हैं , ऐसा लगता मनो बगिया मैं हजारों फूल खिल गए हों , हम लोग देर तक माँ को चाबी के लिए परेशान करते रहे जबकि माँ , उस समय अथाह पीड़ा से गुजर रहीं थीं , उनके हाथ की सर्जरी हुई थी , दो अंगुलियाँ उनके शरीर से अलग कर दी गईं थीं , उस बेबसी की पीड़ा तो केवल माँ ही समझ सकतीं थीं .
सर्जरी के हफ्ते भर बाद जब अपने ब्लाउज का बटन स्वयं नहीं लगा पाई तब उन्हें लगा कि अब मैं , परासत्तु हो गईं हूँ , मेरा कलेजा मुंह को आ गया अरे !! माँ आप ऐसी बात क्यों करती हो ? सुगड सलोनी बहु है , दो पोते हैं , बाबा हैं और मैं भी तो हूँ !! तुम्हारे लिए तो माँ , मैं खुदा से भी झगडा मोल ले सकता हूँ , क्या बात करती हो ? हम सब हंस रहे थे , शायद, वो हम सबके जीवन के हसीं पल थे , सब चुहलवाजी कर रहे थे पर मैं माँ , को आश्वस्त कर  देना चाहता था कि मैं , हूँ तुम्हारे साथ , अंततः माँ भी हठी  निकलीं चाबी का राज रहस्य बन गया .
कालिया !! अपनी आँखों की पोरों के छोर से आंसुओं को पौंछ रहा था , मैं , कम्बल तह करके प्रकृति के आगोश में मन सिंचित करने निकल पड़ा , शायद , उस चाबी की थाह पाने , जिसे खोजने हजारों सैलानी देवालयों , पहाड़ों , पर्वतों  गुफाओं में खिंचे चले आते हैं , माँ , की चाबी का राज इस चाबी बहुत कुछ मिलता है , विश्वास करता हूँ अब , यहाँ तक आया हूँ तो चाबी पाकर ही रहूँगा .
रेनू विमल - ११-१२-0011

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