भारतीय समाज मैं बेटी को ऊँचा दर्जा प्राप्त है , बेटी को लक्ष्मी , दुर्गा , काली , कल्याणी आदि न जाने कितने नामों से पुकारा जाता है । इसके बावजूद घर मैं यदि बेटी आ जाय तो साँस खींच ली जाती है । जबकि बेटी पैदा करने वाली भी एक बेटी ही होती है ।
बाबूजी को तो छः बार साँस खीचनी पड़ी थी , एक के बाद एक छः लड़कियों से घर भर गया था । जबकि वे चाहते थे की चार पञ्च लड़के हों , जो जमीन जायदाद संभालें । बड़ी मुश्किल से दो बेटे ही हाथ लग पाए । बड़े जतन के बाद बड़ी बेटी की शादी हो गई । सब सोचते थे अब , सब आसन हो जाएगा ।
दूसरी बेटी पढ़ाई के बाद घर बैठी थी , रोज सुबह उठाना , दैनिक कार्य करना और चची के घर दौड़ लगा देना , शाम तक यही क्रम चलता था ।
मैं , पुँछ बैठती क्यों ? कहीं लड़का देखा जा रहा है या नहीं , तो बोल देती अरे !! हम तो गाय हैं जहाँ बाँध देंगे , वहीं बाँध जाएँगी । जाने कब तक मिल पायेगा , देखते ही हैं बस , ठंडी साँस लेकर हम सब एक दूसरे का चेहरा देखने लगते और जोर से हंस पड़ते ।
हम सबके बीच मुनिया इतनी अपनी थी कि माँ उसके लिए खाने का हिस्सा अलग रख देतीं । हमारे कपड़े निकाल कर पहन लेती , कभी जब स्कूल कि फीस के लिए बाबूजी मन करते तब मुनिया माँ के पास आकार हाथ फैला देती । माँ , हमारे साथ उसकी फीस भी भर देतीं । किताबें दिला देतीं । पुराने बक्से की तली से पैसों को बटोर कर माँ उनका काम चला देतीं । कभी हम कहते माँ , इतना क्यों करती हो ? अरे !! एक दिन याद करेंगी चाची को । और अपने काम मैं मशगूल हो जातीं ।
मेरी शादी को दस बरस बीत गए लेकिन मुनिया अभी तक मुझे दरवाजे की ओट से ही खड़ी मिल जाती है ।एक शादी के अवसर पर मुनियाँ के साथ कुछ पल बिताने को मिल गए । मिलते ही गले से चिपक गई , देर तक रोटी रही , तुम लोग तो अपने घर चली गई हो , पर मैं तो अभी भी एक विधवा जैसा समय बिता रही हूँ । न कोई खुशी , न कोई उत्साह । मैं सोचने लगी हाँ , हम सब एक साथ पढ़ाई करते थे , बड़े हुए , शादी हो गियो लेकिन मुनिया अभी तक क्यों नही मुक्त हो पा रही है अपने कौमार्य से । अगर बेटा होती तो जायदाद से हिस्सा मांग लेती और ठाठ से जीवन जी लेती लेकिन एक लड़की हूँ वो भी जमीदार खानदान तो , कही जा भी नही सकती । न तो पूजापाठ में मन लगता है और न घर के काम में ही । छोटी बहनें मुझे रोड़ा समझती हैं । अब तू ही बता , क्या करून ? देखती हूँ ईश्वर कबतक परीक्षा लेता है ।
बाबूजी तो कोई कसर नही छोड़ रहे लेकिन क्या करें ? कहीं रिश्ता ही नही जुड़ रहा ।सुबह निकाल जाते हैं रात को घर में घुसते हैं , मुझे उन पर भी तरस आता है । मुनिया बाबूजी को साफ़ बचा ले गई । बेटी का बाप के प्रति प्यार की यही इन्तहा है । जो किसी भी कीमत पर कम नही होता ।
रात भर बिना अवरोध के मुनिया अपने दिल की बात मेरे सामने उडेलती रही । मैं निःशब्द सी हाँ हूँ करती रही । गलों तक बहे आंसुओं को पोंछती रही ।
अब मेरे पास भी दो बेटियाँ हैं , मुनिया ने उन्हें प्यार से पाला है । कभी जब बाहर बरांडे में बैठी पौधों को निहारती हूँ या घर के ओटले पर चिडिया के हर साल बनाये घोंसले से बेटी के जीवन का सच दिखाई पड़ जाता है । अंडे से चूजे , फ़िर छोटे -छोटे पंख और एक दिन चिडिया बन जो हवा में उडी तो फ़िर साल भर बाद घोंसला बनाने ही छत की मुडेर पर दिखाई पड़ती है ।
जब कमरे में मैं सोई होती तब मुनिया मेरे सिरहाने उठने का इंतजार करती रहती और करवट बदलते ही पुँछ लेती चाय पीनी है मैडम !! कभी सरीला राग छेड़ देती , कभी आस -पास की खबरें सुनाने लगती । मैं , सोचती कितनी अच्छी माँ बनेगी मुनिया । मेरे साथ पूरा काम ख़तम करवा लेती । आज पन्द्रह साल बाद भी वही शिकायते , वही एकाकीपन , घुटन , पीड़ा और जाने क्या -क्या बबाल लिए हमेशा दरवाजे पर खड़ी मिल जाती ।
मेरा दिल उसके लिए नतमस्तक होता है । भारतीय बेटी ऐसी ही होतीं हैं । बिल्कुल पृथ्वी जैसी विशाल ह्रदया। ईश्वर उसके जैसी बेटी सभी को दे ।
मानवीय रिश्तों की प्रगानता भारतीय परिवेश में ही बसी है । रिश्ते एक जादुई शक्ति से बंधे रहते हैं । कष्ट सहकर भी बेटी माता -पिता के मान को खंडित नही होने देती ।
रेनू ......
2 comments:
रेनू जी
सादर अभिवादन
मैं भी म.प्र. के एक छोटे से शहर इटारसी से हूं। यहीं रहकर कथा चक्र साहित्यिक पत्रिका का संपादन कर रहा हूं। आपकी रचनाएं आकर्षक हैं। कें न इन्हें पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने के लिए भेजा जाए। यदि पत्रिकओं के पते चाहती हों तो मेरे ब्लाग पर आएं आपकों पत्रिकाओं की समीक्षा के साथ-साथ सम्पर्क के अंतर्गत उनके पते भी मिल जाएंगे।
अखिलेश शुक्ल
संपादक कथा चक्र
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http://katha-chakra.blogspot.com
रेणु जी कल सोमवार (१६) के चिठ्ठाचर्चा ( http://chitthacharcha.blogspot.com/ ) के स्तम्भ में आप अपना उल्लेख कर रही हूँ, चाहें तो देख सकती हैं।
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