एक पेड़ पर एक कौआ और एक बटेर रहते थे। एक बार पक्षियों को यह सूचना मिली कि गरूड़ भगवान सागर तट पर पधार रहे हैं, तो सब पक्षी इकट्ठे होकर उनके दर्शनों के लिए सागर तट की ओर चल दिए। जिस मार्ग से वे दोनों जा रहे थे, उसी राह पर जाता उन्हें एक ग्वाला मिला। उसने अपने सिर पर दही का मटका रखा हुआ था। कौए ने ग्वाले के सिर पर रखे दही के मटके को देखा तो उसके मुंह में पानी भर आया। फिर क्या था, कौआ उस दही को खाने के लिए नीचे उतर आया। खाने के लोभ में वह यह भी भूल गया कि वह इस समय गरूड़ जी के दर्शनों के लिए जा रहा है। कौआ उस मटके पर बैठकर बड़े मजे से दही खाने लगा। कुछ देर बाद ही ग्वाले को भी पता चला गया कि उसके मटके में से कोई दही खा रहा है। कौआ बहुत चालाक होता है, वह पल भर में दो-चार चाेंच दही में मारता और उड़ जाता। थोड़ी देर के बाद फिर आ जाता। इसी प्रकार ग्वाले के चलते-चलते कौआ अपना काम करता रहा। बटेर ने कौए को ऐसा करने से मना भी किया, परन्तु कौआ कहां किसी की बात सुनता है, वह तो सदा यही सोचता है कि मुझसे बड़ा बुध्दिमान कोई नहीं। ग्वाले ने कई बार चलते-चलते हाथ उठाकर दही चोर को पकड़ने की चेष्टा भी की, किन्तु कौआ उसके हाथ नहीं आया। ग्वाले से जब दही चोर पकड़ा नहीं जा सका तो उसने दही का मटका सिर से उतारकर नीचे रख दिया। फिर वहीं एक ओर छुपकर बैठ गया और दही चोर का इंतजार करने लगा। उसने देखा कि ऊपर वृक्ष पर कौआ और बटेर बैठे हैं। ग्वाला समझ गया कि यही दही के चोर हैं। क्रोध से भरे ग्वाले ने पास पड़ा एक पत्थर उठाकर उन पर खींच मारा, जैसे ही कौए ने ग्वाले को पत्थर उठाते देखा तो वह झठ से उड़ गया मगर बटेर बेचारा उड़ न सका और वह पत्थर सीधा जाकर बटेर को लगा। पत्थर लगते ही बटेर के मुंह से एक दर्द भरी चीख निकली। इसके साथ ही वह धरती पर गिर पड़ा और अपने जीवन की अंतिम सांस लेते हुए बोला-'पापी कौए। तूने मुझे बेकार मरवा दिया।'
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